सोमवार, 2 नवंबर 2015

मुश्किल में संघ, बेक़ाबू होते सहयोगी संगठन

उमा भारती
Image caption उग्र हिंदुत्व की समर्थक उमा भारती 2003 में मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थीं.
वर्ष 2003 में भाजपा नेता उमा भारती लगभग ऐसे ही हालात में मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं थी जैसे हालात में नरेंद्र मोदी पिछले साल भारत के प्रधानमंत्री पद पर पहुँचे.
उमा भारती हिंदुत्व की विचारधारा की सबसे मुखर प्रवक्ता थीं लेकिन चुनावी अभियान उन्होंने विकास के वादे पर चलाया और बड़ी चुनावी जीत हासिल की.
उनके चुनाव अभियान के दौरान कई छोटी-मोटी सांप्रदायिक घटनाएं हुईं.
उदाहरण के तौर पर विदिशा के नज़दीक गोहत्या के नाम पर दंगे की कोशिश और पश्चिमी ज़िले धार में एक विवादित धर्मस्थल के मुद्दे पर लोगों को एकजुट करना.
लेकिन ये घटनाएं नज़रअंदाज़ कर दी गईं.
उसी साल फ़रवरी में इंडियन एक्सप्रेस के लिए रिपोर्टिंग करते हुए मैंने एनडीटीवी के पत्रकार संदीप भूषण और उनके कैमरामैन रिज़वान ख़ान के साथ धार ज़िले के आदिवासी इलाक़ों का दौरा किया.
गौरक्षक दलImage copyright Manis Thapliyal
Image caption गौरक्षक दलों का वाहनों की जाँच करना आम बात है.
मैं उस समय इंदौर के तत्कालीन मेयर और 2014 में बीजेपी के हरियाणा चुनाव अभियान का नेतृत्व करने वाले कैलाश विजयवर्गीय की शुरू की गई एक योजना को परख रहा था.
धर्म रक्षा समिति के सहयोग से चल रही इस योजना के तहत इंदौर में खुले घूमने वाली गायों को 121 रुपए की क़ीमत पर आदिवासियों और शहर के नज़दीक रहने वाले लोगों को बेचा जा रहा था.
लेकिन फिर ये ख़बरें आने लगीं कि इंदौर की सड़कों पर पॉलीथीन और कूड़ा खाने वाली इन गायों को जब इनके नए मालिकों ने नियमित भोजन देना शुरू किया तो उनकी मौतें होने लगीं.
एक पशु अधिकारी ने हमें बताया कि पेट में भरी पॉलीथीन इनके लिए घातक सिद्ध हो रही है. हमने इस पर रिपोर्ट तैयार करने के लिए लोगों से बात कर नोट्स बनाए और वीडियो शूट किए.
पॉलीथीन खाती गायImage copyright SEETU TIWARI
Image caption भारत में गायों का कूड़ा-कचरा खाना आम बात है.
हम नज़दीकी क़स्बे की ओर जा रहे थे तभी मोटरसाइकिलों पर आए युवाओं ने हमारे वाहन को रुकवा लिया. कुर्ता-पजामा और भगवा गमछाधारी ये युवा हमारे प्रति आक्रामक थे. हमारे प्रेस कार्ड का कोई असर नहीं हुआ.
जब उन्हें रिज़वान ख़ान का नाम पता चला तो वो उसे पीट-पीटकर मारने पर उतारू हो गए.
संदीप भूषण और मैंने उन्हें दूर हटाने की जद्दोजहद की. इस दौरान उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के शीर्ष अधिकारियों से हमारी पहचान पुख़्ता की.
हमें इस अवैध हिरासत से रिहा होने में एक घंटे का वक़्त लगा. हमें हुई असुविधा के लिए खेद भी प्रकट किया गया. जिन लोगों से उन्होंने बात की थी वे इंडियन एक्सप्रेस और एनडीटीवी से परिचित थे.
ख़ान की जान उस दिन बच गई. लेकिन इस साल सितंबर में उत्तर प्रदेश के दादरी के बिसाड़ा गाँव के अख़लाक़ की जान नहीं बच सकी.
गौरक्षक दलImage copyright Mansi Thapliyal
Image caption भारत में ऐसे दलों की बड़ी तादाद है जो ख़ुद को गौरक्षा के नाम पर हिंसा से पीछे नहीं हटते हैं.
अख़लाक़ के क़त्ल के दो सप्ताह बाद प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी विवादित चुप्पी तोड़ी और घटना को दुर्भाग्यपूर्ण क़रार दिया.
ये बयान ऐसा था, जिससे ऐसी घटनाओं और बयानों की आलोचना नहीं करने की अपनी अनिच्छा मोदी ने ज़ाहिर किया ही साथ में यह मोदी की बहुत मेहनत से बनाई गई विकास आधारित शासन की धारणा के विरोध में भी था.
मोदी की ज़िम्मेदारी न लेने की वजह इन घटनाओं का समर्थन नहीं बल्कि उनके अंदर का डर है.
भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद जैसी उसकी प्रभावशाली समर्थक संस्थाओं को अब उन उग्र हिंदुत्व समूहों से दरकिनार किए जाने का डर है जिन पर अब उनका नियंत्रण नहीं है.
पिछले छह महीनों में ये साफ़ हो गया है कि नरेंद्र मोदी के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सांस्कृतिक एजेंडा भी अपनी सरकार के सुशासन जितना ही अहम है.
राष्ट्रीय स्वयंसेव संघImage copyright RAVI PRAKASH
लेकिन हाल की कुछ घटनाओं से संकेत मिलता है कि आरएसएस का अब उन ताक़तों पर नियंत्रण नहीं है जिन्हें उसने खुला छोड़ रखा है. अख़लाक़ का क़त्ल इन घटनाओं में से एक है.
इस अपराध के लिए गिरफ़्तार कई लोगों के संबंध स्थानीय भाजपा नेता से हैं.
घटना के बाद केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा और मुजफ़्फ़रनगर दंगों के अभियुक्त संगीत सोम जैसे भाजपा नेताओं ने गांव का दौरा किया और भीड़ की कार्रवाई को सही ठहराने की कोशिश की.
ये भीड़ कहीं से अचानक नहीं आई है. रिपोर्टों के मुताबिक़ समाधान सेना नाम की एक संस्था इलाक़े में कई महीनों से सक्रिय थी. सेना के नेता ने आरएसएस के साथ अपने संबंधों का दावा भी किया था.
अख़लाक़ अहमदImage copyright AFP
Image caption अख़लाक़ अहमद की गोमांस खाने की अफ़वाह पर पीट-पीटकर हत्या कर दी गई थी.
दूसरी घटना पत्रकार और पूर्व भाजपा नेता सुधींद्र कुलकर्णी पर हुआ सार्वजनिक हमला थी. पूर्व पाकिस्तानी विदेश मंत्री ख़ुर्शीद कसूरी की किताब का विमोचन आयोजित करने पर शिवसेना ने उनके मुंह पर कालिख पोत दी.
शिवसेना पाकिस्तान से संबंधों का हमेशा विरोध करती रही है. लेकिन महाराष्ट्र में भाजपा से गठबंधन के बावजूद ये हमला होना आश्चर्यजनक है. जब मोदी ने घटना से दूरी बनाई तो शिवसेना ने उन पर भी हमला बोला.
शिवसेना नेता संजय राउत ने कहा कि दुनिया मोदी को अहमदाबाद और गोधरा से जानती है और हम भी उनका इसी के लिए सम्मान करते हैं. उन्होंने कहा, "अगर वही मोदी पाकिस्तान कलाकार ग़ुलाम अली के मुंबई में कंसर्ट रद्द किए जाने और ख़ुर्शीद कसूरी के विरोध को दुर्भाग्यपूर्ण कह रहे हैं तो यह हम सबके लिए दुर्भाग्यपूर्ण है."
सुधींद्र कुलकर्णीImage copyright AFP
Image caption शिवसैनिकों ने सुधींद्र कुलकर्णी के मुंह पर कालिख पोत दी थी.
शिवसेना के हमले बेहद आक्रमक रहे हैं. ऐसा लगता है कि शिवसेना ने फ़ैसला कर लिया है कि बीजेपी और आरएसएस से ज़्यादा आक्रामक होकर ही वह अपने हितों की रक्षा कर सकती है.
लेकिन तीसरी घटना को ऐसे संगठन से जोड़ा जा रहा है जिसके काम स्वीकार्य रूढ़िवादी मान्यताओं से प्रभावित लगते हैं.
तीस अगस्त की सुबह लेखक एमएम कलबुर्गी की कर्नाटक के धारवाड़ ज़िले में उनके घर में हत्या कर दी गई. जाँच में उसी सनातन संस्था का नाम आया जिसे दो साल पहले तर्कवादी नरेंद्र दाभोलकर की हत्या से जोड़ा गया था.
इन हत्याओं से ये सुनिश्चित हो गया कि सनाथन संस्था ने महाराष्ट्र और गोवा के बाहर भी पहचान बना ली है. ये संस्था 90 के दशक से ही सक्रिय रही है.
कलबुर्गीImage copyright SHIB SHANKAR
Image caption कलबुर्गी अपने लेखों में हिंदुत्व पर सवाल उठाते रहे थे.
इस संस्था के बारे में इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट बताती है कि ये ख़ुद को एक आध्यात्मिक संस्था बताती है जो सामाजिक उत्थान, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए काम करते हुए धर्म को फिर से प्रजवल्लित करती है और धर्म की राह में बढ़ रहे लोगों की रक्षा करती है और अधर्मियों का संहार करती है.
2003 में धार में जिस हिंसक समूह से हमारा सामना हुआ था वो किसी भी रूप में मालवा के उस इलाक़े के लिए कोई नई बात नहीं था.
आरएसएस और बीजेपी की पूर्ववर्ती जनसंघ की जड़ें इस इलाक़े में मज़बूत रही हैं.
2007 में जब मैं दिल्ली आ गया और समझौता एक्सप्रेस धमाकों की पुलिस जांच पर रिपोर्टें कर रहा था तब जाँच 'अभिनव भारत' नाम के संगठन की ओर बढ़ रही थी.
समझौता धमाकों के आरोपीImage copyright PTI
Image caption महंत असीमानंद समझौता धमाकों के अभियुक्त हैं.
वीडी सावरकर ने इस संगठन की शुरुआत 1904 में की थी और मालवा क्षेत्र में 2006 के दौरान ये फिर से उठा.
कई रिपोर्टों में ये बताया गया कि अभिनव भारत संगठन से जुड़े लोग आरएसएस के भी क़रीबी रहे हैं.
उन्होंने संघ से संबंध तो रखे लेकिन उसके आदेशों से ख़ुद को नहीं बांधा. इसके सदस्य हिंसा को ही राजनीतिक समाधान मानते थे.
बाद में जो जानकारियां सामने आईं उनसे स्पष्ट हुआ कि इस संगठन के सदस्य मुस्लिम जेहादी चरमपंथ का जवाब हिंदू चरमपंथ से देना चाहते थे.
अभिनव भारत के कई सदस्यों का चरित्र उन युवाओं से बिलकुल भी अलग नहीं था जो आरएसएस से जुड़े थे और जिनसे मेरी मुलाक़ात मालवा इलाक़े में हुई थी.
नरेंद्र मोदीImage copyright AFP
Image caption प्रधानमंत्री मोदी नरेंद्र मोदी का कहना है कि उन्हें आरएसएस से जुड़े होने पर गर्व है.
आरएसएस जिन कामों का खुला समर्थन करती है, अभिनव भारत के कारनामे उनसे कहीं आगे थे.
बीजेपी नेतृत्व की सरकारों से हमें पता चला है कि जब धार्मिक विचारधारा वाली राजनीतिक पार्टियां सत्ता में आती हैं तब हिंसक चरमपंथ नियंत्रण से बाहर हो जाता है और उसे प्रोत्साहन भी मिलता है.
लेकिन ऐसे उदाहरण भाजपा शासन से पहले भी मिलते रहे हैं.
पंजाब में शिरोमणि अकाली दल, जो सिखों के हितों की रक्षा करने का उसी तरह दावा करती है जैसे बीजेपी हिंदुओं की भावनाओं का ख़्याल रखने का दावा करती है, को 70 के दशक में जरनैल सिंह भिंडरावाले के उदय का सामना करना पड़ा.
जरनैल सिंह भिंडरावालेImage copyright SATPAL DANISH
Image caption भिंडरावाले पंजाब में उग्र विद्रोह का चेहरा थे.
भिंडरावाले, जिसे शुरुआत में कांग्रेस का समर्थन प्राप्त था, ने 80 के दशक के शुरुआती सालों में अकालियों को दरकिनार कर उन्हीं मांगों को उठाया जिन्हें अकालियों ने आनंदपुर साहिब रेज़ोल्यूशन में उठाया था.
इनके तहत उसने सिखों के लिए अपने मामलों में अधिक स्वायत्ता मांगी.
भिंडरावाले को जल्द ही उग्र सिखों का समर्थन मिल गया. अकाली इन्हें अपना समर्थक जनसमूह मानते थे. भिंडरावाले ने समूचे पंजाब में हिंसा शुरू कर दी और अकाली, जो उसके उदय का सामना नहीं कर सके, राज्य में जारी हिंसा के समर्थक बन गए.
भिंडरावाले का मुक़ाबला करने के अकालियों के प्रयास सिख राजनीति को नाटकीय रूप से कट्टरपंथ की ओर ले गए.
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Image caption ऑपरेशन ब्लू स्टार के तहत भारतीय सेना ने स्वर्ण मंदिर पर हमला कर भिंडरावाले का अंत किया था.
भारतीय सेना के ऑपरेशन ब्लू स्टार, जिसमें सेना ने अमृतसर के स्वर्ण मंदिर परिसर पर हमला करते हुए भिंडरावाले को मार दिया था, के बाद जो चरमपंथी संगठन पनपे उनमें भिंडरावाले के समय के दौरान कट्टरपंथी विचारधारा अपनाने वाले युवाओं की भरमार थी.
भले ही अब भिंडरावाले जैसा कोई व्यक्तित्व न हो लेकिन संघ के सहयोगी समूहों में इसके लिए स्थान बढ़ रहा है. बीजेपी की ताक़त बढ़ रही है लेकिन उसके पास इस स्थान को ग्रहण करने वालों से निपटने के लिए कोई रणनीति नहीं है.
महाराष्ट्र में बीजेपी की राज्य सरकार सनाथन संस्था या शिवसेना के ख़िलाफ़ बहुत कुछ नहीं कर सकती है. विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के अधिक उग्र समूहों के संबंधों के मामले में पार्टी देश के अन्य इलाक़ों में भी ऐसी ही स्थिति में है.
शिवसेनाImage copyright AP
Image caption शिवसेना पाकिस्तान के ख़िलाफ़ उग्र प्रदर्शन करती रही है.
बीजेपी जब से केंद्र में सत्ता में आई है उसने सांस्कृतिक री-इंजीनियरिंग के प्रयासों, जिनमें 'हिंदुत्व की ओर घर वापसी' जैसे कथित धर्मपरिवर्तन, बीफ़ खाने पर प्रतिबंध और अंतरधार्मिक विवाहों का हिंसक विरोध शामिल है, को मौन या फिर स्पष्ट समर्थन ही दिया है.
और इसी पृष्ठभूमि में अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण जैसे वो मुद्दे बरक़रार हैं जिनका इस्तेमाल बीजेपी अपने राजनीतिक उद्देश्य पूरा करने के लिए करती रही है.
1992 में बाबरी मस्जिद को गिराए जाने के बाद से बीजेपी और आरएसएस कट्टरवादी हिंदुत्व संगठनों से यह कहकर दूरी बनाते रहे हैं कि गठबंधन में सरकार चला रही पार्टी उन मुद्दों पर भी स्वतंत्र फ़ैसले नहीं ले सकती है जो उसके लिए अहम है.
नरेंद्र मोदीImage copyright Reuters
Image caption उग्र हिंदुत्व से जितना नुक़सान मोदी को होगा उससे कहीं ज़्यादा भारतीय लोकतंत्र को.
लेकिन 2014 की जीत के बाद ये बहाना मौजूद नहीं है. हाल ही में वीएचपी ने सरकार को याद दिलाया कि वह सिर्फ़ विकास के लिए ही नहीं बल्कि राम मंदिर बनाने के लिए भी चुनी गई है.
जैसे-जैसे मोदी सरकार अपने कार्यकाल को ख़त्म करने की ओर बढ़ेगी ये दबाव और बढ़ता जाएगा. इन ताक़तों का सामने से मुक़ाबला करने में असमर्थ मोदी को अब अपरिहार्य बन चुकी उकसावे की कार्रवाइयों से निपटने में भी सावधानी बरतनी होगी.
व्यक्तिगत तौर पर वे निर्णय लेकर अपने वादे पूरे करने वाले नेता की सावधानीपूर्वक बनाई गई छवि को खोने के ख़तरे में हैं. लेकिन जो नुक़सान गणतंत्र को होगा वो इससे कहीं ज़्यादा है.

शिक्षा व्यवस्था पर दिबाकर बैनर्जी की खुली चिट्ठी

दिवाकर बनर्जीImage copyright agency
जिस स्कूल में मैं नर्सरी से 12वीं तक पढ़ा हूँ उसके कर्ताधर्ता वही लोग थे जिन्हें आज राइट विंग, हिंदुत्ववादी या आम भाषा में 'संघी' कहा जाएगा. स्कूल की शिक्षा व्यवस्था का सनातन हिंदू संस्कृति से रिश्ता बहुत गहरा था. हमें हिंदी और संस्कृत काफ़ी ज़ोर देकर पढ़ाई गई.
स्कूल का वार्षिकोत्सव गुरुवंदना से शुरू होकर वाद-विवाद, सितार, गिटार वादन, नुक्कड़ नाटक, संस्कृत काव्य पाठ, क़व्वाली और मुशायरा से गुज़र कर सरस्वती वंदना पर ख़त्म होता था. हमें सिखाया जाता था कि भारत दुनिया के उन महान समाजों में से है जिसमें सभी के लिए जगह है.
पाँचवी क्लास में ही मुझे 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का अर्थ मालूम था. कड़क और एक किलो के थप्पड़ वाले संस्कृत सर की बदौलत छठी क्लास तक मैं गणित, भौतिकी, रसायन विज्ञान और जीव विज्ञान हिंदी में पढ़ा. हमारी सोंधी खुशबू वाली स्कूल डायरी में गायत्री मंत्र, संस्कृत काव्य और गीता के चुने हुए हिस्से थे जो मुझे आज भी कंठस्थ हैं.
इसके साथ-साथ हम इतिहास पढ़ते थे जिसे अब 'लेफ़्टिस्ट', 'एलीटिस्ट' और 'स्युडो-सेक्युलर' कहा जाने लगा है - जो भी उसका अर्थ हो. उसका कुछ-कुछ अब भी सच सा लगता है, और कुछ नहीं.
अंग्रेज़ी के वर्चस्व के इस ज़माने में आज हिंदी, संस्कृत और प्राचीन भारत पर मेरी (अधूरी) पकड़ देखकर मेरे दोस्त-यार इम्प्रेस हो जाते हैं. मैं अपने स्कूल का जितना भी शुक्रिया अदा करूँ कम होगा, जिसने तीन हजार सालों के मानव इतिहास को सहजता से समझने की योग्यता मुझे दी, साथ ही वक़्त के साथ चलना भी सिखाया. मैं जो भी हूँ, अपने उस स्कूल की वजह से हूँ. इसका गर्व है मुझे.
स्कूल जाते भारतीय बच्चे.Image copyright ap
मुझे आज तक कभी भी ऐसा नहीं लगा कि मेरे स्कूल की शिक्षा ग़लत है. एक बार भी हमें ये नहीं पढ़ाया गया कि भारत से प्यार करने के लिए किसी से से नफ़रत करने की जरूरत है. इसका गर्व है मुझे.
मेरे जैसे अनगिनत भारतीय हैं जिन्हें अपने स्कूल या कॉलेज पर गर्व है.
भारत के अभिभावक, शिक्षक और छात्रगण, अब समय आ गया है ये निर्णय लेने का कि जिस दिन हमारे बच्चे पढ़ाई पूरी करके भविष्य के भारत में क़दम रखें तो उन्हें अपने स्कूल पर फख्र होगा तो किस बात का होगा? कितना बड़ा प्लेग्राउन्ड या वीआईपी पार्किंग है उसकी? या कितने लाख की फीस है उसकी? या किस फिल्मस्टार के बेटा क्लासमेट है उसका? या किस नेता का जिगरी चेयरमैन है उसका?
दिबाकर बैनर्जीImage copyright Dibakar Bainerjee
या फिर अपने शिक्षकों का? हमारे संस्कृत सर, हमारी अंग्रेजी मैम, मेरे प्रिंसिपल सर और वो सभी शिक्षक जिनका हमने आदर किया, जिनसे डरे, जिन पर हम फ़िदा हुए, जिनके हम दीवाने रहे, जिनकी हमने पीठ पीछे नकल उतारी और जिन्होंने हमारे कान खींचे.
इन शिक्षकों ने हमें केवल विद्या नहीं दी, जुनून दिया सिर्फ पांच स्टेप्स में सेट थियरी पैराडॉक्स साबित करने का या बिना सांस लिए एक मिनट तक रावण के शिवस्तोत्र की आवृत्ति का. मैं जिस प्रोफ़ेशनल इंस्टीट्यूट में गया वहाँ पेड़ के नीचे बैठकर शिक्षकों ने हमें जुनून दिया छोटे भारतीय शहरों के लिए सस्ता और सेफ रिक्शा बनाने का या लोटे के अनूठे आकार पर फिदा होने का. हमें एक बार भी ये भनक नहीं पड़ी कि हम राइट हैं या लेफ्ट. मास हैं या एलीटिस्ट!
एक भारतीय स्कूल के बच्चे.Image copyright EPA
कभी ऐसा नहीं लगा कि कुछ महान हो रहा है. कभी किसी शिक्षक ने हमें भारत से प्यार करने, देशभक्त बनने या देश की रक्षा करने के लिए नहीं कहा. लेकिन अब मालूम पड़ता है कि जब उन्होंने हमें ब्रह्मगुप्त के चतुर्भुज समीकरण, दिनकर की कविता, रस्किन बॉण्ड और मंटो की कहानियां, भारतीय मलमल की बारीक़ी, बंगाल के टेराकोटा टाइल की सुंदरता या लद्दाख में विश्व की सबसे ऊंची हवाई पट्टी के बारे में बताया और साहिर के फिल्मी गाने गाए, उन्होंने हमारे दिल में चुपके से, हमें बताए बिना देशप्रेम की वह अगन जला दी जो आज भी सुलग रही है.
उस अगन का सबूत नम्बर एक? करोड़ों भारतीय, जो आज भी भारत में हर नाइंसाफ़ी, मजबूरी, तकलीफ से जूझते हुए यहीं जी रहे हैं और जम के जी रहे हैं. सबूत नम्बर दो? वह लाखों भारतीय जो भारत के बाहर भारत के लिए तरसते हुए अपने केबल वाले से देसी चैनल के लिए रोज़ झगड़ते हैं!
एक भारतीय स्कूल के अध्यापक और छात्र.Image copyright AFP
भारत की शिक्षा अपने आप में एक सीख है. हजारों वर्षों से भारत में अध्ययन-अध्यापन की बेजोड़ परंपरा रही है. इस परंपरा का केंद्र गुरु और शिष्य हैं. ये यूँ ही नहीं है कि द्रोण, कृप, कपिल, बुद्ध, महावीर, शंकर और नानक आज भी पौराणिक कथाओं और धर्मग्रंथों में हमारे बीच जीते हैं. ये आखिरकार कुछ भी हों, सबसे पहले ये शिक्षक ही थे जिन्होंने शिष्यों के एक विशाल समूह को प्रेरित किया.
हमारे बचपन के शिक्षक हमें दूसरे भारतीयों के साथ भारत में रहना सिखाते थे. वह दूसरे भारतीय भी ऐसे स्कूल-कॉलेजों से पढ़कर आए थे, जहाँ सहजता से निभाई जाने वाली भारतीयता सिखाई गई थी. हम रूड़की से पढ़कर पास होते और चेन्नई में काम करने जाते थे. पंजाबियों से भरी दिल्ली में रह रहे बंगाली लड़के का बेस्टफ्रेंड एक गुजराती लड़का बन जाता था.
किसी ऐसे राज्य में जहां कभी नहीं गए वहां के इंजीनियरिंग कॉलेज में भर्ती होने से पहले हम एकबार भी नहीं सोचते थे. कोइ ऐसा हॉस्टल जहां एक समुदाय गिनती में भारी हो हमे कभी इतना त्रास न देता था जितना अब देता है. क्या बदल गया फिर?
दिबाकर बैनर्जीImage copyright SPICE PR
आज बहुत सारे कारनामे हो रहे हैं जिनको सही ठहराने के लिए हमारी प्राचीन परंपरा का उल्लेख किया जाता है. अगर हम केवल शिक्षा परंपरा का उल्लेख करें तो तर्क, युक्ति, सवाल जवाब, डिबेट- इनके बिना वह परंपरा गूंगी गुड़िया रह जाती है जिसके साथ केवल खेल खेला जाता हो. भारत का सबसे पुराना सिलेबस है - वाद-विवाद. भारत की सबसे पुरानी 'कोर्सबुक' वेद की रोंगटे खड़े कर देने वाली कई ऋचाएँ, बस सवाल हैं और कुछ नहीं! उपनिषद्, दर्शन, मीमांसा- कहीं भी देखें - वे गुरु और शिष्य के बीच प्रश्नोत्तर के रूप में किए गए संवाद हैं.
सही शिक्षक हमें सही राह दिखाता है. सही रास्ता वही दिखा सकता है जिसे खुद सही रास्ता दिखता हो. विश्व का सबसे प्रतिभाशाली चित्रकार व्याकरण सिखाने में फेल होगा! और देशप्रेम का पाठ फिल्ममेकिंग या गणित पढ़ाते हुए बखूबी पढ़ाया जा सकता है, बशर्ते उस गुरु को फिल्ममेकिंग या गणित से प्रेम हो!
इसके लिए देशभक्ति के अलग सिलेबस की जरूरत नहीं है क्योंकि ये सिलेबस अक्सर वही लोग बनाते हैं जिन्हे अपना उल्लू सीधा करने कि लिए आपके मासूम बच्चे की दरकार है बतौर रिक्रूट.
भारत के अभिभावकों और छात्रों, हमें दिखाने की जरूरत है कि हम अपने देश से उन लोगों के मुक़ाबले ज्यादा प्यार करते हैं जो देशप्रेम की लवस्टोरी में अकेले हीरो बन रहे हैं.
जिस भारत से हम प्यार करते हैं वह मस्त, मुस्कुराता, रंग-बिरंगा, अच्छे खाने की खुशबू से महकता, अच्छे संगीत में झूमता, शरारती लेकिन होशियार बच्चों से भरे क्लासरूम वाला भारत है. उस क्लासरूम में जहां हमारी सिखणी मां और हमारे खोजा पापा पहली बार मिले थे! वो हॉस्टल जहां नवरात्र के डांडिया रास के बाद हम सारी रात जागकर पढते थे! क्या करते - सिलेबस ही इतना प्यारा था!
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Image caption दिबाकर की फ़िल्म खोसला का घोंसला फ़िल्म में अनुपम खेर भी अभिनय कर चुके हैं.
जिस भारत से हम प्यार करते हैं वह ऐसे शिक्षकों का देश है जो तार-तार माहवार पर मीलों चलकर बच्चों को वर्णमाला सिखाते हैं, या नौजवानों को खराद मशीन चलाना या होनहार बच्चियों को पहाड़ लांघना.
जिस भारत से हम प्यार करते हैं वह ऐसे शिक्षकों, शिक्षाविदों, लेखकों, कवियों और गायकों का है जिन्होंने अपनी किताबों, गीतों, कहानियों और कविताओं के जरिए भारतीय छात्रों को दुनिया के हर कोने में पहचान दिलाई है. ये पहचान हम खो बैठे तो हमें कोई नहीं पूछेगा!
जिस भारत से हम प्यार करते हैं वह ऐसे बहुत से संस्थानों से भरा है जो छात्रों को देशप्रेम का दावा करना सिखाए बिना, बैंकिग, जेनेटिक रिसर्च, फैशन डिजाइन, सांख्यिकी में अव्वल बनाते हैं और वह छात्र देश का नाम रौशन करते हैं.
जिस भारत से हम प्यार करते हैं, उसके अभिभावकों और छात्रों को अधिकार है कि वे खुद निर्णय लें वे क्या सिलेबस पढ़ना चाहते हैं और कैसे. अगर कोई ऐसा कॉलेज या स्कूल हो जहां वे जा सकें, इसका मतलब है कि हमारी सारी गलतियों, तनावों, गरीबी और असमानता के बावजूद हम सही रास्ते पर हैं.
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आज डर ये है कि हम ये अधिकार खो देंगे. भारत के अभिभावकों और छात्रों, मैं आपसे कहता हूँ कि आप अपनी चुप्पी तोड़ें और बोलना शुरू करें क्योंकि जब अरसे से चुप बैठा कोई बोलता है तो दुनिया सुनती है.