शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

स्मयन्तक मणि की कथा

 चतुर्थी पर चंद्रदर्शन गलती से कर लें तो पढ़ें यह कथा...


#स्यमन्तक_मणि_की_कथा


एक बार नंदकिशोर ने सनतकुमारों से कहा कि चौथ की चंद्रमा के दर्शन करने से श्रीकृष्ण पर जो लांछन लगा था, वह सिद्धिविनायक व्रत करने से ही दूर हुआ था। ऐसा सुनकर सनतकुमारों को आश्चर्य हुआ।


उन्होंने पूर्णब्रह्म श्रीकृष्ण को कलंक लगने की कथा पूछी तो नंदकिशोर ने बताया- एक बार जरासंध के भय से श्रीकृष्ण समुद्र के मध्य नगरी बसाकर रहने लगे। इसी नगरी का नाम आजकल द्वारिकापुरी है। द्वारिकापुरी में निवास करने वाले सत्राजित यादव ने सूर्यनारायण की आराधना की। तब भगवान सूर्य ने उसे नित्य आठ भार सोना देने वाली स्यमन्तक नामक मणि अपने गले से उतार कर दे दी। मणि बहुत दिव्य थी और  रात्रि में भी सूर्य की तरह चमकदार थी।


मणि पाकर सत्राजित यादव जब समाज में गया तो श्रीकृष्ण ने उस मणि को प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की। सत्राजित ने वह मणि श्रीकृष्ण को न देकर अपने भाई प्रसेनजित को दे दी। एक दिन प्रसेनजित घोड़े पर चढ़ कर शिकार के लिए गया। वहां जंगल में एक शेर ने उसे मार डाला और मणि ले ली। रीछों के राजा जामवन्त ने सिंह के पास दिव्य मणि को देखा तो उन्होंने उस सिंह को मारकर मणि ले ली और अपनी गुफा में चले गये।


उधर जब प्रसेनजित कई दिनों तक शिकार से न लौटा तो सत्राजित को बड़ा दुख हुआ। उसने सोचा, श्रीकृष्ण ने ही मणि प्राप्त करने के लिए उसका वध कर दिया होगा। अतः बिना किसी प्रकार की जानकारी जुटाए उसने प्रचार कर दिया कि श्रीकृष्ण ने प्रसेनजित को मारकर स्यमन्तक मणि छीन ली है।


इस लोक-निंदा के निवारण के लिए श्रीकृष्ण बहुत से लोगों के साथ प्रसेनजित को ढूंढने वन में गए। वहां पर प्रसेनजित को शेर द्वारा मार डालना और शेर को रीछ द्वारा मारने के चिह्न उन्हें मिल गए।


अब श्रीकृष्ण रीछ के पैरों की खोज करते- करते जामवन्त की गुफा पर पहुंचे, गुफा में प्रवेश किया तो उसमें अन्दर से प्रकाश आ रहा है और वे गुफा के भीतर चले गए। वहां उन्होंने देखा कि एक बालिका जो जामवन्त की पुत्री थी उस मणि से खेल रही है। श्री कृष्ण ने बालिका को वह मणि देने के लिए कहा तो उस बालिका ने मना कर दिया और चिल्लाकर अपने पिता जामवंत जी को पुकारा। श्रीकृष्ण को देखते ही ऋक्षराज जामवन्त जी गुस्सा हो गये और बोले कि ऐसे मांगने से मणि नहीं मिलेगी तुम मुझे युद्ध में परास्त कर यह मणि ले सकते हो (क्योंकि रामावतार में भगवान ने जामवंत जी को वरदान दिया था कि युद्ध में तुम्हें मेरे अलावा कोई परास्त नहीं कर सकता तथा कृष्ण अवतार में मैं तुम्हारी युद्ध की अभिलाषा पूर्ण करूंगा) और युद्ध के लिए तैयार हो गये।


श्री कृष्ण और जामवंत जी में युद्ध छिड़ गया। गुफा के बाहर श्रीकृष्ण के साथियों ने उनकी सात दिन तक प्रतीक्षा की परंतु श्री कृष्ण बाहर नहीं आए। फिर वे लोग उन्हें मर गया जानकर पश्चाताप करते हुए द्वारिकापुरी लौट गए। इधर इक्कीस दिन तक लगातार घमासान युद्ध करने पर भी जामवन्त श्रीकृष्ण को पराजित न कर सका। तब उसने सोचा, कहीं यह वह कृष्ण अवतार तो नहीं जिसके लिए मुझे रामचंद्रजी का वरदान मिला था। तब जामवंत जी ने श्री कृष्ण जी से पूछा कि क्या आप मेरे वही भगवान राम हैं जो कृष्ण अवतार में अपना दिया वरदान पूरा करने आए हो। श्री कृष्ण द्वारा हां कहने पर जामवंत जी को यह पुष्टि हो गई तब उसने अपनी कन्या का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया और मणि दहेज में दे दी।


श्रीकृष्ण जब मणि लेकर वापस आए और सत्राजित को मणि सौंप दी तो सत्राजित अपने किए पर बहुत लज्जित हुआ। इस लज्जा से मुक्त होने के लिए उसने भी अपनी पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया।


उधर कुछ समय के बाद श्रीकृष्ण किसी काम से इंद्रप्रस्थ चले गए। तब अक्रूर तथा ऋतु वर्मा की राय से शतधन्वा यादव ने सत्राजित को मारकर मणि अपने कब्जे में ले ली। सत्राजित की मौत का समाचार जब श्रीकृष्ण को मिला तो वे तत्काल द्वारिका पहुंचे। वे शतधन्वा को मारकर मणि छीनने को तैयार हो गए।


इस कार्य में सहायता के लिए बलराम भी तैयार थे। यह जानकर शतधन्वा ने मणि अक्रूर को दे दी और स्वयं भाग निकला। श्रीकृष्ण ने उसका पीछा करके उसे मार तो डाला, पर मणि उन्हें नहीं मिल पाई।


पीछे पीछे बलरामजी भी वहां पहुंचे। श्रीकृष्ण ने उन्हें बताया कि मणि इसके पास नहीं है। इस बात पर बलरामजी को विश्वास नहीं हुआ। वे अप्रसन्न होकर विदर्भ चले गए। श्रीकृष्ण के द्वारिका लौटने पर लोगों ने उनका भारी अपमान किया। तत्काल यह समाचार फैल गया कि स्यमन्तक मणि के लोभ में श्रीकृष्ण ने अपने भाई को भी त्याग दिया।


श्रीकृष्ण इस अकारण प्राप्त अपमान के शोक में डूबे थे कि सहसा वहां नारदजी आ गए। उन्होंने श्रीकृष्णजी को बताया- आपने भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के चंद्रमा का दर्शन किया था। इसी कारण आपको इस तरह लांछित होना पड़ा है।


श्रीकृष्ण ने पूछा- चौथ के चंद्रमा को ऐसा क्या हो गया है जिसके कारण उसके दर्शन मात्र से मनुष्य कलंकित होता है? तब नारदजी बोले- एक बार ब्रह्माजी ने चतुर्थी के दिन गणेशजी का व्रत किया था। गणेशजी ने प्रकट होकर वर मांगने को कहा तो उन्होंने मांगा कि मुझे सृष्टि की रचना करने का मोह न हो।


गणेशजी ज्यों ही 'तथास्तु' कहकर चलने लगे, उनके विचित्र व्यक्तित्व को देखकर चंद्रमा ने उपहास किया। इस पर गणेशजी ने रुष्ट होकर चंद्रमा को शाप दिया कि आज से कोई तुम्हारा मुख नहीं देखना चाहेगा।


शाप देकर गणेशजी तो अपने लोक को चले गए और इधर चंद्रमा शाप की लज्जा के मारे मानसरोवर की कुमुदिनियों में जा छिपा। अब चंद्रमा के बिना प्राणियों को बड़ा कष्ट हुआ। उनके कष्ट को देखकर ब्रह्माजी की आज्ञा से सारे देवताओं के व्रत से प्रसन्न होकर गणेशजी ने वरदान दिया कि अब चंद्रमा शाप से मुक्त तो हो जाएगा, पर वर्ष में एक दिन "भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी" को जो भी चंद्रमा के दर्शन करेगा, उसे चोरी आदि का झूठा लांछन जरूर लगेगा। किंतु जो मनुष्य प्रत्येक द्वितीया को दर्शन करता रहेगा, वह इस लांछन से बच जाएगा। इस चतुर्थी को सिद्धिविनायक व्रत करने से सारे दोष छूट जाएंगे।


यह सुनकर देवता अपने-अपने स्थान को चले गए। इस प्रकार भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चंद्रमा का दर्शन करने से आपको यह कलंक लगा है। तब श्रीकृष्ण ने कलंक से मुक्त होने के लिए यही व्रत किया था।


कुरुक्षेत्र के युद्ध में युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा- भगवन्! मनुष्य की मनोकामना सिद्धि का कौन-सा उपाय है? किस प्रकार मनुष्य धन, पुत्र, सौभाग्य तथा विजय प्राप्त कर सकता है?


यह सुनकर श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया- यदि तुम पार्वती पुत्र श्री गणेश का विधिपूर्वक पूजन करो तो निश्चय ही तुम्हें सब कुछ प्राप्त हो जाएगा। तब श्रीकृष्ण की आज्ञा से ही युधिष्ठिरजी ने गणेश चतुर्थी का व्रत करके महाभारत का युद्ध जीता था ।


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