शुक्रवार, 11 नवंबर 2022

शंख के फायदे

पवित्र शंख के जानिए 12 चमत्कारिक रहस्य... 

क्या शंख हमारे सभी प्रकार के कष्ट दूर कर सकता है? भूत-प्रेत और राक्षस भगा सकता है? क्या शंख में ऐसी शक्ति है कि वह हमें धनवान बना सकता है? क्या शंख हमें शक्तिशाली व्यक्ति बना सकता है? पुराण कहते हैं कि सिर्फ एकमात्र शंख से यह संभव है। शंख की उत्पत्ति भी समुद्र मंथन के दौरान हुई थी। 

शिव को छोड़कर सभी देवताओं पर शंख से जल अर्पित किया जा सकता है। शिव ने शंखचूड़ नामक दैत्य का वध किया था अत: शंख का जल शिव को निषेध बताया गया है। 

शंख के नाम से कई बातें विख्यात है जैसे योग में शंख प्रक्षालन और शंख मुद्रा होती है, तो आयुर्वेद में शंख पुष्पी और शंख भस्म का प्रयोग किया जाता है। प्राचीनकाल में शंक लिपि भी हुआ करती थी। विज्ञान के अनुसार शंख समुद्र में पाए जाने वाले एक प्रकार के घोंघे का खोल है जिसे वह अपनी सुरक्षा के लिए बनाता है। 

शंख से वास्तुदोष ही दूर नहीं होता इससे आरोग्य वृद्धि, आयुष्य प्राप्ति, लक्ष्मी प्राप्ति, पुत्र प्राप्ति, पितृ-दोष शांति, विवाह आदि की रुकावट भी दूर होती है। इसके अलावा शंख कई चमत्कारिक लाभ के लिए भी जाना जाता है। उच्च श्रेणी के श्रेष्ठ शंख कैलाश मानसरोवर, मालद्वीप, लक्षद्वीप, कोरामंडल द्वीप समूह, श्रीलंका एवं भारत में पाये जाते हैं।  

त्वं पुरा सागरोत्पन्नो विष्णुना विधृत: करे।
नमित: सर्वदेवैश्य पाञ्चजन्य नमो स्तुते।। 

वर्तमान समय में शंख का प्रयोग प्राय: पूजा-पाठ में किया जाता है। अत: पूजारंभ में शंखमुद्रा से शंख की प्रार्थना की जाती है। शंख को हिन्दू धर्म में महत्वपूर्ण और पवित्र माना गया माना गया है। शंख कई प्रकार के होते हैं। शंख के चमत्का‍रों और रहस्य के बारे में पुराणों में विस्तार से लिखा गया है। आओ जानते हैं शंख और शंख ध्वनि के 12 रहस्य.. 

1.०पहला रहस्य... 

शंख के प्रकार : शंख के प्रमुख 3 प्रकार होते हैं:- दक्षिणावृत्ति शंख, मध्यावृत्ति शंख तथा वामावृत्ति शंख। इन शंखों के कई उप प्रकार होते हैं। शंखों की शक्ति का वर्णन महाभारत और पुराणों में मिलता है। यह प्रकार इस तरह भी है- वामावर्ती, दक्षिणावर्ती तथा गणेश शंख। 

शंख के अन्य प्रकार : लक्ष्मी शंख, गोमुखी शंख, कामधेनु शंख, विष्णु शंख, देव शंख, चक्र शंख, पौंड्र शंख, सुघोष शंख, गरूड़ शंख, मणिपुष्पक शंख, राक्षस शंख, शनि शंख, राहु शंख, केतु शंख, शेषनाग शंख, कच्छप शंख, गोमुखी शंख, पांचजन्य शंख, अन्नपूर्णा शंख, मोती शंख, हीरा शंख, शेर शंख आदि प्रकार के होते हैं। 

2. दूसरा रहस्य... 

द्विधासदक्षिणावर्तिर्वामावत्तिर्स्तुभेदत:
दक्षिणावर्तशंकरवस्तु पुण्ययोगादवाप्यते
यद्गृहे तिष्ठति सोवै लक्ष्म्याभाजनं भवेत् 

अर्थात् शंख दो प्रकार के होते हैं:- दक्षिणावर्ती एवं वामावर्ती। लेकिन एक तीसरे प्रकार का भी शंख पाया जाता है जिसे मध्यावर्ती या गणेश शंख कहा गया है। 

* दक्षिणावर्ती शंख पुण्य के ही योग से प्राप्त होता है। यह शंख जिस घर में रहता है, वहां लक्ष्मी की वृद्धि होती है। इसका प्रयोग अर्घ्य आदि देने के लिए विशेषत: होता है।
* वामवर्ती शंख का पेट बाईं ओर खुला होता है। इसके बजाने के लिए एक छिद्र होता है। इसकी ध्वनि से रोगोत्पादक कीटाणु कमजोर पड़ जाते हैं।
* दक्षिणावर्ती शंख के प्रकार : दक्षिणावर्ती शंख दो प्रकार के होते हैं नर और मादा। जिसकी परत मोटी हो और भारी हो वह नर और जिसकी परत पतली हो और हल्का हो, वह मादा शंख होता है। 

* दक्षिणावर्ती शंख पूजा : दक्षिणावर्ती शंख की स्थापना यज्ञोपवीत पर करनी चाहिए। शंख का पूजन केसर युक्त चंदन से करें। प्रतिदिन नित्य क्रिया से निवृत्त होकर शंख की धूप-दीप-नैवेद्य-पुष्प से पूजा करें और तुलसी दल चढ़ाएं। 

प्रथम प्रहर में पूजन करने से मान-सम्मान की प्राप्ति होती है। द्वितीय प्रहर में पूजन करने से धन- सम्पत्ति में वृद्धि होती है। तृतीय प्रहर में पूजन करने से यश व कीर्ति में वृद्धि होती है। चतुर्थ प्रहर में पूजन करने से संतान प्राप्ति होती है। प्रतिदिन पूजन के बाद 108 बार या श्रद्धा के अनुसार मंत्र का जप करें। 

3.तीसरा रहस्य... 

विविध नाम : शंख, समुद्रज, कंबु, सुनाद, पावनध्वनि, कंबु, कंबोज, अब्ज, त्रिरेख, जलज, अर्णोभव, महानाद, मुखर, दीर्घनाद, बहुनाद, हरिप्रिय, सुरचर, जलोद्भव, विष्णुप्रिय, धवल, स्त्रीविभूषण, पांचजन्य, अर्णवभव आदि। 

4.चौथा रहस्य... 

महाभारत यौद्धाओं के पास शंख : महाभारत में लगभग सभी यौद्धाओं के पास शंख होते थे। उनमें से कुछ यौद्धाओं के पास तो चमत्कारिक शंख होते थे। जैसे भगवान कृष्ण के पास पाञ्चजन्य शंख था जिसकी ध्वनि कई किलोमीटर तक पहुंच जाती थी। 

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जय:।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदर:।।-महाभारत 

अर्जुन के पास देवदत्त, युधिष्ठिर के पास अनंतविजय, भीष्म के पास पोंड्रिक, नकुल के पास सुघोष, सहदेव के पास मणिपुष्पक था। सभी के शंखों का महत्व और शक्ति अलग-अलग थी। कई देवी देवतागण शंख को अस्त्र रूप में धारण किए हुए हैं। महाभारत में युद्धारंभ की घोषणा और उत्साहवर्धन हेतु शंख नाद किया गया था। 

अथर्ववेद के अनुसार, शंख से राक्षसों का नाश होता है- शंखेन हत्वा रक्षांसि। भागवत पुराण में भी शंख का उल्लेख हुआ है। यजुर्वेद के अनुसार युद्ध में शत्रुओं का हृदय दहलाने के लिए शंख फूंकने वाला व्यक्ति अपिक्षित है। 

अद्भुत शौर्य और शक्ति का संबल शंखनाद से होने के कारण ही योद्धाओं द्वारा इसका प्रयोग किया जाता था। श्रीकृष्ण का ‘पांचजन्य’ नामक शंख तो अद्भुत और अनूठा था, जो महाभारत में विजय का प्रतीक बना। 

5.पांचवां रहस्य... 

नादब्रह्म : शंख को नादब्रह्म और दिव्य मंत्र की संज्ञा दी गई है। शंख की ध्वनि को ॐ की ध्वनि के समकक्ष माना गया है। शंखनाद से आपके आसपास की नकारात्मक ऊर्जा का नाश तथा सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। शंख से निकलने वाली ध्वनि जहां तक जाती है वहां तक बीमारियों के कीटाणुओं का नाश हो जाता है 

6.छठा रहस्य... 

धन प्राप्ति में सहायक शंख : शंख समुद्र मंथन के समय प्राप्त चौदह अनमोल रत्नों में से एक है। लक्ष्मी के साथ उत्पन्न होने के कारण इसे लक्ष्मी भ्राता भी कहा जाता है। यही कारण है कि जिस घर में शंख होता है वहां लक्ष्मी का वास होता है। 

*यदि मोती शंख को कारखाने में स्था‍पित किया जाए तो कारखाने में तेजी से आर्थिक उन्नति होती है। यदि व्यापार में घाटा हो रहा है, दुकान से आय नहीं हो रही हो तो एक मोती शंख दुकान के गल्ले में रखा जाए तो इससे व्यापार में वृद्धि होती है। 

*यदि मोती शंख को मंत्र सिद्ध व प्राण-प्रतिष्ठा पूजा कर स्थापित किया जाए तो उसमें जल भरकर लक्ष्मी के चित्र के साथ रखा जाए तो लक्ष्मी प्रसन्न होती है और आर्थिक उन्नति होती है। 

*मोती शंख को घर में स्थापित कर रोज 'ॐ श्री महालक्ष्मै नम:' 11 बार बोलकर 1-1 चावल का दाना शंख में भरते रहें। इस प्रकार 11 दिन तक प्रयोग करें। यह प्रयोग करने से आर्थिक तंगी समाप्त हो जाती है।
इसी तरह प्रत्येक शंख से अलग अलग लाभ प्रा‍प्त किए जा सकते हैं।
7.सातवां रहस्य... 

शंख पूजन का लाभ : शंख सूर्य व चंद्र के समान देवस्वरूप है जिसके मध्य में वरुण, पृष्ठ में ब्रह्मा तथा अग्र में गंगा और सरस्वती नदियों का वास है। तीर्थाटन से जो लाभ मिलता है, वही लाभ शंख के दर्शन और पूजन से मिलता है।
शंख से कृष्ण या लक्ष्मी विग्रह पर जल या पंचामृत अभिषेक करने पर देवता प्रसन्न होते हैं। 8.आठवां रहस्य... 

सेहत में फायदेमंद शंख : शंखनाद से सकारात्मक ऊर्जा का सर्जन होता है जिससे आत्मबल में वृद्धि होती है। शंख में प्राकृतिक कैल्शियम, गंधक और फास्फोरस की भरपूर मात्रा होती है। प्रतिदिन शंख फूंकने वाले को गले और फेफड़ों के रोग नहीं होते। 

शंख बजाने से चेहरे, श्वसन तंत्र, श्रवण तंत्र तथा फेफड़ों का व्यायाम होता है। शंख वादन से स्मरण शक्ति बढ़ती है। शंख से मुख के तमाम रोगों का नाश होता है। गोरक्ष संहिता, विश्वामित्र संहिता, पुलस्त्य संहिता आदि ग्रंथों में दक्षिणावर्ती शंख को आयुर्वद्धक और समृद्धि दायक कहा गया है। 

पेट में दर्द रहता हो, आंतों में सूजन हो अल्सर या घाव हो तो दक्षिणावर्ती शंख में रात में जल भरकर रख दिया जाए और सुबह उठकर खाली पेट उस जल को पिया जाए तो पेट के रोग जल्दी समाप्त हो जाते हैं। नेत्र रोगों में भी यह लाभदायक है। यही नहीं, कालसर्प योग में भी यह रामबाण का काम करता है। 

9.नौवां रहस्य... 

सबसे बड़ा शंख : विश्व का सबसे बड़ा शंख केरल राज्य के गुरुवयूर के श्रीकृष्ण मंदिर में सुशोभित है, जिसकी लंबाई लगभग आधा मीटर है तथा वजन दो किलोग्राम है। 

10 दसवां रहस्य... 

श्रेष्ठ शंख के लक्षण:-
शंखस्तुविमल: श्रेष्ठश्चन्द्रकांतिसमप्रभ:
अशुद्धोगुणदोषैवशुद्धस्तु सुगुणप्रद: 

अर्थात् निर्मल व चन्द्रमा की कांति के समानवाला शंख श्रेष्ठ होता है जबकि अशुद्ध अर्थात् मग्न शंख गुणदायक नहीं होता। शुद्ध गुणोंवाला शंख ही प्रयोग में लाना चाहिए। क्षीरसागर में शयन करने वाले सृष्टि के पालनकर्ता भगवान विष्णु के एक हाथ में शंख अत्यधिक पावन माना जाता है। इसका प्रयोग धार्मिक अनुष्ठानों में विशेष रूप से किया जाता है। 

11.ग्यारहवां रहस्य... 

शंख से वास्तु दोष का निदान : शंख से वास्तु दोष भी मिटाया जा सकता है। शंख को किसी भी दिन लाकर पूजा स्थान पर पवित्र करके रख लें और प्रतिदिन शुभ मुहूर्त में इसकी धूप-दीप से पूजा की जाए तो घर में वास्तु दोष का प्रभाव कम हो जाता है। शंख में गाय का दूध रखकर इसका छिड़काव घर में किया जाए तो इससे भी सकारात्मक उर्जा का संचार होता है। 

जानिए किस शंख से ‍मिलता कौन सा लाभ... 

*गणेश शंख: इस शंख की आकृति भगवान श्रीगणेश की तरह ही होती है। यह शंख दरिद्रता नाशक और धन प्राप्ति का कारक है। 

*अन्नपूर्णा शंख : अन्नपूर्णा शंख का उपयोग घर में सुख-शान्ति और श्री समृद्धि के लिए अत्यन्त उपयोगी है। गृहस्थ जीवन यापन करने वालों को प्रतिदिन इसके दर्शन करने चाहिए। 

*कामधेनु शंख : कामधेनु शंख का उपयोग तर्क शक्ति को और प्रबल करने के लिए किया जाता है। इस शंख की पूजा-अर्चना करने से मनोकामनाएं पूरी होती हैं। 

*मोती शंख : इस शंख का उपयोग घर में सुख और शांति के लिए किया जाता है। मोती शंख हृदय रोग नाशक भी है। मोती शंख की स्थापना पूजा घर में सफेद कपड़े पर करें और प्रतिदिन पूजन करें, लाभ मिलेगा। 

ऐरावत शंख : ऐरावत शंख का उपयोग मनचाही साधना सिद्ध को पूर्ण करने के लिए, शरीर की सही बनावट देने तथा रूप रंग को और निखारने के लिए किया जाता है। प्रतिदिन इस शंख में जल डाल कर उसे ग्रहण करना चाहिए। शंख में जल प्रतिदिन 24 - 28 घण्टे तक रहे और फिर उस जल को ग्रहण करें, तो चेहरा कांतिमय होने लगता है। 

*विष्णु शंख : इस शंख का उपयोग लगातार प्रगति के लिए और असाध्य रोगों में शिथिलता के लिए किया जाता है। इसे घर में रखने भर से घर रोगमुक्त हो जाता है। 

*पौण्ड्र शंख : पौण्ड्र शंख का उपयोग मनोबल बढ़ाने के लिए किया जाता है। इसका उपयोग विद्यार्थियों के लिए उत्तम है। इसे विद्यार्थियों को अध्ययन कक्ष में पूर्व की ओर रखना चाहिए। 

*मणि पुष्पक शंख : मणि पुष्पक शंख की पूजा-अर्चना से यश कीर्ति, मान-सम्मान प्राप्त होता है। उच्च पद की प्राप्ति के लिए भी इसका पूजन उत्तम है। 

*देवदत्त शंख : इसका उपयोग दुर्भाग्य नाशक माना गया है। इस शंख का उपयोग न्याय क्षेत्र में विजय दिलवाता है। इस शंख को शक्ति का प्रतीक माना गया है। न्यायिक क्षेत्र से जुड़े लोग इसकी पूजा कर लाभ प्राप्त कर सकते हैं। 

*दक्षिणावर्ती शंख : इस शंख को दक्षिणावर्ती इसलिए कहा जाता है क्योंकि जहां सभी शंखों का पेट बाईं ओर खुलता है वहीं इसका पेट विपरीत दाईं और खुलता है। इस शंख को देव स्वरूप माना गया है। दक्षिणावर्ती शंख के पूजन से खुशहाली आती है और लक्ष्मी प्राप्ति के साथ-साथ सम्पत्ति भी बढ़ती है। इस शंख की उपस्थिति ही कई रोगों का नाश कर देती है। दक्षिणावर्ती शंख पेट के रोग में भी बहुत लाभदायक है। विशेष कार्य में जाने से पहले दक्षिणावर्ती शंख के दर्शन करने भर से उस काम के सफल होने की संभावना बढ़ जाती है।
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शनिवार, 16 जुलाई 2022

सावन की बरसात

आज सावन की पहली बरसात 
हलधरा ने मिल गी इंद्र गी सौगात
ऊं तो षाढ भी नीं गयो खाली
पेली बिरखा सूं धरती होगी आली
मोठ-बाजरी मूंगफली बीज दिया हाली 
खेतां गो होग्यो बिजान नी रहया खाली
इकान्तर बरस आसमान सूं खूब पाणी 
गांव गली में कीचड़ गी मच गी घाणी
आभो बरस्यां उगसी खूब लीलो
चौपायां न सांवरियो क जीलो
आ बात केणी है सोखी
के बाबू साची व चोखी

शनिवार, 11 जून 2022

कौन सी धातु के बर्तन में भोजन करने से क्या क्या लाभ और हानि होती है

 कौन सी धातु के बर्तन में भोजन करने से क्या क्या लाभ और हानि होती है

  सोना


सोना एक गर्म धातु है। सोने से बने पात्र में भोजन बनाने और करने से शरीर के आन्तरिक और बाहरी दोनों हिस्से कठोर, बलवान, ताकतवर और मजबूत बनते है और साथ साथ सोना आँखों की रौशनी बढ़ता है।


 चाँदी


चाँदी एक ठंडी धातु है, जो शरीर को आंतरिक ठंडक पहुंचाती है। शरीर को शांत रखती है  इसके पात्र में भोजन बनाने और करने से दिमाग तेज होता है, आँखों स्वस्थ रहती है, आँखों की रौशनी बढती है और इसके अलावा पित्तदोष, कफ और वायुदोष को नियंत्रित रहता है।


 कांसा


काँसे के बर्तन में खाना खाने से बुद्धि तेज होती है, रक्त में  शुद्धता आती है, रक्तपित शांत रहता है और भूख बढ़ाती है। लेकिन काँसे के बर्तन में खट्टी चीजे नहीं परोसनी चाहिए खट्टी चीजे इस धातु से क्रिया करके विषैली हो जाती है जो नुकसान देती है। कांसे के बर्तन में खाना बनाने से केवल ३ प्रतिशत ही पोषक तत्व नष्ट होते हैं।


 तांबा


तांबे के बर्तन में रखा पानी पीने से व्यक्ति रोग मुक्त बनता है, रक्त शुद्ध होता है, स्मरण-शक्ति अच्छी होती है, लीवर संबंधी समस्या दूर होती है, तांबे का पानी शरीर के विषैले तत्वों को खत्म कर देता है इसलिए इस पात्र में रखा पानी स्वास्थ्य के लिए उत्तम होता है. तांबे के बर्तन में दूध नहीं पीना चाहिए इससे शरीर को नुकसान होता है।


पीतल


पीतल के बर्तन में भोजन पकाने और करने से कृमि रोग, कफ और वायुदोष की बीमारी नहीं होती। पीतल के बर्तन में खाना बनाने से केवल ७ प्रतिशत पोषक तत्व नष्ट होते हैं।


 लोहा


लोहे के बर्तन में बने भोजन खाने से  शरीर  की  शक्ति बढती है, लोह्तत्व शरीर में जरूरी पोषक तत्वों को बढ़ता है। लोहा कई रोग को खत्म करता है, पांडू रोग मिटाता है, शरीर में सूजन और  पीलापन नहीं आने देता, कामला रोग को खत्म करता है, और पीलिया रोग को दूर रखता है. लेकिन लोहे के बर्तन में खाना नहीं खाना चाहिए क्योंकि इसमें खाना खाने से बुद्धि कम होती है और दिमाग का नाश होता है। लोहे के पात्र में दूध पीना अच्छा होता है।


 स्टील


स्टील के बर्तन नुक्सान दायक नहीं होते क्योंकि ये ना ही गर्म से क्रिया करते है और ना ही अम्ल से. इसलिए नुक्सान नहीं होता है. इसमें खाना बनाने और खाने से शरीर को कोई फायदा नहीं पहुँचता तो नुक्सान भी  नहीं पहुँचता।


 एलुमिनियम


एल्युमिनिय बोक्साईट का बना होता है। इसमें बने खाने से शरीर को सिर्फ नुक्सान होता है। यह आयरन और कैल्शियम को सोखता है इसलिए इससे बने पात्र का उपयोग नहीं करना चाहिए। इससे हड्डियां कमजोर होती है. मानसिक बीमारियाँ होती है, लीवर और नर्वस सिस्टम को क्षति पहुंचती है। उसके साथ साथ किडनी फेल होना, टी बी, अस्थमा, दमा, बात रोग, शुगर जैसी गंभीर बीमारियाँ होती है। एलुमिनियम के प्रेशर कूकर से खाना बनाने से 87 प्रतिशत पोषक तत्व खत्म हो जाते हैं।


  मिट्टी


मिट्टी के बर्तनों में खाना पकाने से ऐसे पोषक तत्व मिलते हैं, जो हर बीमारी को शरीर से दूर रखते थे। इस बात को अब आधुनिक विज्ञान भी साबित कर चुका है कि मिट्टी के बर्तनों में खाना बनाने से शरीर के कई तरह के रोग ठीक होते हैं। आयुर्वेद के अनुसार, अगर भोजन को पौष्टिक और स्वादिष्ट बनाना है तो उसे धीरे-धीरे ही पकना चाहिए। भले ही मिट्टी के बर्तनों में खाना बनने में वक़्त थोड़ा ज्यादा लगता है, लेकिन इससे सेहत को पूरा लाभ मिलता है। दूध और दूध से बने उत्पादों के लिए सबसे उपयुक्त हैमिट्टी के बर्तन। मिट्टी के बर्तन में खाना बनाने से पूरे १०० प्रतिशत पोषक तत्व मिलते हैं। और यदि मिट्टी के बर्तन में खाना खाया जाए तो उसका अलग से स्वाद भी आता है।


पानी पीने के पात्र के विषय में 'भावप्रकाश ग्रंथ' में लिखा है....


*जलपात्रं तु ताम्रस्य तदभावे मृदो हितम्।*

*पवित्रं शीतलं पात्रं रचितं स्फटिकेन यत्।*

*काचेन रचितं तद्वत् वैङूर्यसम्भवम्।*

(भावप्रकाश, पूर्वखंडः4)


अर्थात् पानी पीने के लिए ताँबा, स्फटिक अथवा काँच-पात्र का उपयोग करना चाहिए। सम्भव हो तो वैङूर्यरत्नजड़ित पात्र का उपयोग करें। इनके अभाव में मिट्टी के जलपात्र पवित्र व शीतल होते हैं। टूटे-फूटे बर्तन से अथवा अंजलि से पानी नहीं पीना चाहिए।

गरूड़ पुराण की अचूक जानकारी

 गरुण पुराण के बारे में कई भ्रांतियां हैं। जैसे कहा जाता है कि गरुण पुराण, सिर्फ मृत्यु के समय पढ़ा जाता है। लेकिन ऐसा नहीं है। गरुण पुराण में कई ऐसे अचूक उपाय हैं, जिसके बारे में कम लोग जानते हैं। संजीवनी विद्या उन्हीं में से एक है। इस विद्या में, मृत व्यक्ति को, जीवित करने का तरीका बताया गया है।


गरुण पुराण में संजीवनी विद्या


गरुण पुराण में संजीवनी विद्या का वर्णन है। इसमें ऐसे ऐसे मंत्र बताये गये हैं, जिससे मृत व्यक्ति भी जीवित हो सकता है। अगर इस मंत्र को सिद्ध करके, मृत व्यक्ति के कान में फूंका जाये, तो वह तुरंत उठ खड़ा होगा। लेकिन मंत्र सिद्धि के बाद, दशांश हवन, और ब्राह्मण भोजन कराना ज़रूरी है।


संजीवनी मंत्र - यक्षि ओम उं स्वाहा


गरुण पुराण में लक्ष्मी मंत्र


गरुण पुराण में सिर्फ श्राद्ध और तर्पण के बारे में ही नहीं लिखा है। बल्कि इसमें लक्ष्मी प्राप्ति के भी अचूक उपाय बताये गये हैं। अगर किसी के जीवन में दरिद्रा लक्ष्मी, डेरा डाले, काफी लंबे समय से बैठी हों, तो इसमें गरीबी दूर करने का अचूक मंत्र बताया गया है। दावा है कि इस मंत्र के जाप से, एक महीने में ही जन्म जन्म की गरीबी दूर हो जाती है।


गरुण पुराण में ग़रीबी दूर करने का मंत्र


ओम जूं स :


इसके अलावा 6 महीने तक लगातार, श्रीविष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करने से भी, मनचाही इच्छा पूरी हो सकती है। अब चाहे यह इच्छा करियर में तरक्की की हो,या फिर ढेर सारी संपत्ति का मालिक बनने की, श्रीविष्णु सहस्त्र नाम के पाठ से, सबकुछ संभव है।


क्या मृत्यु के बाद तुरंत मिलता है शरीर?


गरुड पुराण में, भगवान विष्णु कहते हैं कि मृत्यु के बाद, आत्मा को तुरंत शरीर मिल जाता है। लेकिन कर्मों की गति के आधार पर, कभी कभी देर से भी शरीर मिलता है। मृत्यु के बाद, आत्मा वायु शरीर धारण करती है। उसके बाद पिंडदान से आत्मा, शरीर में बंध जाती है। इसीलिये मृत्यु के बाद, पिंडदान करने से, आत्मा को भटकन से मुक्ति मिल जाती है।


गरुड पुराण में मोक्ष का उपाय


गरुण पुराण में बताया गया है कि मनुष्य को, अंतिम समय में क्या करना चाहिये? इसमें भगवान ने कहा है कि मृत्यु के समय, देह-माया से, आसक्ति कम करनी चाहिये। किसी पवित्र तीर्थ में स्नान करना चाहिये। अगर शरीर साथ दे तो किसी तीर्थ में आसन लगाकर, गायत्री मंत्र जपना चाहिये। अंतिम समय में, ओम के जाप से मोक्ष और मुक्ति मिलती है।


कैसे करें तर्पण?


गरुण पुराण में श्राद्ध और तर्पण के भी नियम बताये गये हैं। तर्पण के लिये, जल में दूध और तिल मिलायें। फिर पितृ गायत्री मंत्र पढ़ते हुये, दक्षिण की ओर मुख कर, बांया घुटना ज़मीन पर लगाकर, जनेऊ,गमक्षा दांयें कंधे पर रख कर तर्पण करना चाहिये। जल के तर्पण के लिये चांदी, तांबे या फिर पीतल के बर्तन प्रयोग करें। लेकिन चांदी के बर्तन से तर्पण करने से, पितरों की आत्मा को तृप्ति मिलती है। स्टील के बर्तन से तर्पण न करें।


कैसे पहुंचता है श्राद्ध का भोजन?


विश्वदेव ,अग्निश्रवा दोनों दिव्य पितृ हैं। यह दोनों ही नाम गोत्र के सहारे, हव्य कव्य को पितरों तक पहुंचाते हैं। पितृ, देव योनि में हों तो श्राद्ध का भोजन अमृत रूप में, मनुष्य योनि में हो तो अन्न रूप में, पशु योनि में घास के रूप में, नाग योनि में वायु रूप में, यक्ष योनि में हों तो पान रूप में मिलता है।


जय श्रीराम

गुरुवार, 9 जून 2022

कालखंडों की वास्तविक गणना

 युग (युग और कालखंडों की वास्तविक गणना)

चार युग चक्र के भीतर एक युग या युग का नाम

युग, हिंदु सभ्यता के अनुसार, एक निर्धारित संख्या के वर्षों की कालावधि है। ब्रह्माण्ड का काल चक्र चार युगों के बाद दोहराता है। हिन्दू ब्रह्माण्ड विज्ञान से हमे यह पता चलता है की हर ४.१-८.२ अरब सालों बाद ब्रम्हांड में जीवन एक बार निर्माण एवं नष्ट होता है। इस कालावधि को हम ब्रह्मा का एक पूरा दिन (रात और दिन मिलाकर) भी मानते है। ब्रह्मा का जीवनकाल ४० अरब से ३११० अरब वर्षों के बीच होता है।

काल के अंगविशेष के रूप में 'युग' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद से ही मिलता है (दश युगे, ऋग्0 1.158.6) इस युग शब्द का परिमाण अस्पष्ट है। ज्यौतिष-पुराणादि में युग के परिमाण एवं युगधर्म आदि की सुविशद चर्चा मिलती है।

वेदांग ज्योतिष में युग का विवरण है (1,5 श्लोक)। यह युग पंचसंवत्सरात्मक है। कौटिल्य ने भी इस पंचवत्सरात्मक युग का उल्लेख किया है। महाभारत में भी यह युग स्मृत हुआ है। पर यह युग पारिभाषिक है, अर्थात् शास्त्रकारों ने शास्त्रीय व्यवहारसिद्धि के लिये इस युग की कल्पना की है। सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलयुग एक परिकल्पना है सतयुग की परिकल्पना में सभी इच्छा की पूर्ति तत्काल होती है त्रेतायुग में कुछ इच्छाओं को छोड़कर अत्याधिक इच्छा की पूर्ति होती है और द्वापर में आधे इच्छा की पूर्ति होती है कलयुग में कोई बहुत बहुत कम इच्छा की पूर्ति होती है परन्तु कालयुग की पूर्ण कल्पना होने पर सतयुग पुनः प्रारंभ होता है ।

जो वास्तविक विश्व है मात्र इसमें जीवनयापन करने के लिए मानसिक व शारीरिक परिश्रम करना पड़ता है । परन्तु परिकल्पना की दुनिया में स्वयं की आत्मा व चेतना को प्राप्त करने के लिए अधर्म की शक्तियों से युद्ध करना पड़ता है साथ ही इस विश्व में दुष्ट मनुष्यों के असत्य वचनों व छलकपट को भी समझना पड़ता है ।

परिकल्पना की दुनिया के मिथ्क इस वास्तविक विश्व के दुख दर्द से भी अत्याधिक दुखभरा है अत्याधिक उलझन है अत्याधिक व्याकुलता बैचैनी जब मनुष्य की मन परिकल्पना की दुनिया में प्रवेश करती है तब से अंतिम क्षण अर्थात पांच वर्षों तक सुख और चैन पूरी तरह से जीवन से चला जाता है मात्र सदैव चिंतन मनन परिकल्पना ही रहता है ना जगने पर परिकल्पना खत्म होती है ना निंद्रा में मात्र दिन रात परिकल्पना आती ही रहती है । कहा जाऐ तो भूख गरीबी बीमारी धोखा अपमान मृत्यु से भी भयावह कुछ है तो परिकल्पना की दुनिया की कल्पना अगर वास्तविक दुनिया में सतयुग त्रेता युग व द्वारापाक युग व कालयुग होता तो विश्व का हर मनुष्य व्याकुलता बैचैनी के कारण आत्महत्या कर लेता । युगों के विषय में सभी विद्वानों कों बहुत बड़ी गलत फहमी है, सतयुग 4800x360=1728000यानि 4800वर्ष और दिवस के हिसाब से 1728000दिवस का होता है विद्वानों कि मूर्खता यह हैं कि वे 1728000 वर्ष समझते है इसी तरह त्रेता युग 3600x360 जबकि द्वापर 2400x360 और कलियुग 1200x360 अवधि का होता है युग का यह समयकाल त्रिदेव युग कै अंदर है जबकि महायुग में यह अवधि 9 हजार साल होती है।

🔱युग आदि का परिमाण

मुख्य लौकिक युग सत्य (उकृत), त्रेता, द्वापर और कलि नाम से चार भागों में (चतुर्धा) विभक्त है। इस युग के आधार पर ही मन्वंतर और कल्प की गणना की जाती है। इस गणना के अनुसार सत्य आदि चार युग संध्या (युगारंभ के पहले का काल) और संध्यांश (युगांत के बाद का काल) के साथ 12000 वर्ष परिमित होते हैं। चार युगों का मान 4000 + 3000 + 2000 + 1000 = 10000 वर्ष है; संध्या का 400 + 300 + 200 + 100 = 1000 वर्ष; संध्यांश का भी 1000 वर्ष है। युगों का यह परिमाण दिव्य वर्ष में है। दिव्य वर्ष = 360 मनुष्य वर्ष है; अत: 12000 x 360 = 4320000 वर्ष चतुर्युग का मानुष परिमाण हुआ। तदनुसार सत्ययुग = 1728000; त्रेता = 1296000; द्वापर = 864000; कलि = 432000 वर्ष है। ईद्दश 1000 चतुर्युग (चतुर्युग को युग भी कहा जाता है) से एक कल्प याने ब्रह्मा की आयु 100 वर्ष है। 71 दिव्ययुगों से एक मन्वंतर होता है। यह वस्तुत: महायुग है। अन्य अवांतर युग भी है। प्रत्येक संख्या में ३६० के गुणा करना होता है क्योंकि और कलियुग जो की १२०० दिव्यवर्ष अवधि का था वह मानव वर्षों के रूप में ४३२००० वर्ष का बना होता है चारों युगों की अवधि इस प्रकार है सत्य 17,28,000 वर्ष ,त्रेता 12,96,000 वर्ष ,द्वापर 8,64,000 वर्ष कलियुग 4,32,000 वर्ष चारों युगों का जोड़ 43,20,000 वर्ष यानी एक चतुर्युग | दुसरी गलती यह हुई कि जब द्वापर समाप्त हुआ तो उस समय २४०० वा वर्ष चल रहा था जब कलियुग शुरू हुआ तो उसको कलियुग प्रथम वर्ष लिखा जाना चाहिए था लेकिन लिखा गया कलियुग २४०१ तो जो कहा जाता है की २०२२ में कलियुग शुरू हुए ५१२३ वर्ष हो गए हैं उसमे से त्रुटिपूर्ण जुड़े २४०० वर्ष निकालने होंगे शेष बचे २७२४ वर्ष ही सही अंक है | यह कहा गया कलियुग के बाद सत्ययुग आएगा ये व्यवहारिक नहीं है कलियुग की आखरी रात्री सोयेंगे सुबह उठेंगे तो सब कुछ सही होगा हर व्यक्ति सतोगुणी होगा यह संभव तभी होगा जब कल्कि अवतार के बाद भगवान धर्म की स्थापना करेंगे। पतन जिस प्रकार धीरे धीरे हुआ उसी प्रकार उत्थान होगा अधोगामी कलियुग के बीतने पर उर्ध्वगामी कलियुग की शुरुआत होगी फिर द्वापर फिर त्रेता फिर सत्ययुग आएगा |इंसान केवल अपनी बुद्धि लगा कर वेद धर्मशास्त्र का अर्थ निकाल सकता है उसके बिल्कुल सत्य भाव को व्यक्त नहीं कर सकता है अतः मानव बुद्धि से गलती की बहुत संभावना होती है यंहा म़ैं यह बताना चाहूंगा कि कलियुग का महायुग आज से 8911साल पहले शुरू हों गया था तब महाभारत काल था ओर त्रिदेव युग के अंदर कलियुग 911 ईस्वी सन से शुरू हो गया यदि कलियुग आदि शंकराचार्य कि मृत्यु के तुरुंत बाद शुरू माना जाय तो 2038 में कलियुग समाप्त हो जाएगा।

🔱युगधर्म

मुख्य लेख: युगधर्म

सूर्य अपने महा केंद्र (ब्रह्मा) के चक्कर लगाता है इसके एक चक्कर मे पृथ्वी के 24000 वर्ष लगते हैं इसमे 12000 वर्षों (चार युग की अवधि)का एक आरोही अर्धचक्र तथा 12000 (चार युग की अवधि)वर्षों का एक अवरोही अर्धचक्र होता है ।

अवरोही अर्धचक्र में 12000 वर्षों में सूर्य अपने महाकेन्द्र से सबसे दूरस्थ स्थान तक पहुंचता है तब धर्म का ह्रास होते होते वह इतनी निकृष्ठ अवस्था मे पहुंच जाता है इस काल मे मनुष्य स्थूल जगत से परे कुछ भी समझ नहीं पाता था युद्ध तलवारों से लड़े जा रहे थे । उसी प्रकार आरोही अर्धचक्र में सूर्य जब महकेन्द्र के सबसे निकट स्थान की ओर बढ़ना शुरू करता है तब धर्म भी उन्नत होना शुरू हो जाता है । यह विकास 12000 वर्षों में धीरे धीरे पूर्ण होता है । इन दोनों आरोही या अवरोही चक्रों में प्रत्येक को एक दैव युग कहते हैं ।

धर्म (मानसिक सद्चरित्रता) की उन्नति धीरे धीरे होती है और 12000 वर्षों की अवधी में यह चार अवस्थाओं में विभाजित होती है -

⚜️कलि युग - 1200 वर्ष (जब सूर्य अपने परिक्रमा पथ के 1/20 हिस्से में भ्रमण करता है) धर्म अपनी प्रारंभिक अवस्था मे होता है । मनुष्य की बुद्धि नित्य परिवर्तनशील वाह्य जगत से अधिक कुछ भी समझने में असमर्थ होती है ।

⚜️द्वापर युग - 2400 वर्ष (जब सूर्य अपने परिक्रमा पथ के 2/20 हिस्से में भ्रमण करता है) इस काल मे धर्म अपनी द्वितीय अवस्था मे पहुंच जाता है । मनुष्य की बुद्धि वाह्य जगत का सृजन करने वाले सूक्ष्म तत्वों और उनके गुणों को समझने लगती है ।

⚜️त्रेता युग - 3600 वर्ष (जब सूर्य अपने परिक्रमा पथ के 3/20 हिस्से में भ्रमण करता है) धर्म तृतीय अवस्था मे पहुंच जाता है । मनुष्य की बुद्धि समस्त विद्युत शक्तियों के मूल स्रोत अर्थात ईश्वरीय चुम्बकीय शक्ति को समझने में समर्थ हो जाती है ।

⚜️सत्ययुग - 4800 वर्ष (जब सूर्य अपने परिक्रमा पथ के 4/20 हिस्से में भ्रमण करता है) धर्म चौथी अवस्था मे पहुंच कर पूर्ण विकसित हो जाता है । बुद्धि सब कुछ समझने के योग्य हो जाती है । सृष्टि से परे परब्रह्म का भी पूर्ण ज्ञान हो सकता है । सत्ययुग में हुए महान ऋषि मनु ने अपनी मनु सहिंता में स्पष्ट वर्णन किया है-

चत्वार्याहु: सहस्त्राणि वर्षणान्तु कृतं युगम ।त

स्य तावच्छति संध्याम संधाश्च तथाविध: ।।

इतरेषु ससंध्येशु ससंध्यानशेषु च त्रिषु ।

एकपायेन वर्तन्ते सहस्त्राणि शतानि च ।।

यदेतत परिसंख्यातमादावेव चतुर्युगम ।

एतद द्वादशसाहस्र देवानां युगमुच्यते ।।

देवीकानां युगानान्तु सहस्रं परिसंख्यया ।

ब्रह्ममेकमहर्ज्ञेयम तावती रात्रिरेव च ।।

कृत युग या सत्ययुग चार हज़ार वर्षों का होता है उसके उदय की संधि के उतने ही सौ वर्ष और अस्त की संधि के भी उतने ही सौ वर्ष होते हैं

इसके आगे के युग और युग संधी प्रत्येक क्रमश 1000 और 100 वर्षों के हिसाब से घट जाती हैं । उदाहरण-

⚜️सत्ययुग (400+4000+400=4800)

⚜️त्रेता (300+3000+300=3600)

⚜️द्वापर (200+2000+200=2400)

⚜️कलियुग (100+1000+100=1200)

चारों युगों (चतुर्युग)की अवधि का जोड़ एक दैव युग(12000 वर्ष) कहते हैं ।

1000 दैव युगों से ब्रह्मा का एक दिन बनता है और इतने ही दैव युगों से ब्रह्मा की एक रात ।

ब्रह्मा वह महा केंद्र है जिसके चक्कर सूर्य 24000 वर्षों में लगाता है ।

ईसा पूर्व सन 11501 में जब शारदीय विषुव मेष राशि के प्रथम बिंदु पर था तब सूर्य का अपने परिक्रमा मार्ग में महकेन्द्र के निकटतम बिंदु से दूरस्थ बिंदु की ओर प्रस्थान शुरू हुआ और उसी के साथ मानव की बुद्धि क्षीण होने लगी । 4800 वर्ष(सत्ययुग) के अंत तक आध्यात्मिक ज्ञान को समझने की शक्ति को खो दिया 3600 वर्ष(त्रेतायुग) चुम्बकीय ज्ञान को समझने की शक्ति का ह्रास 2400 वर्ष (द्वापर) विद्युत शक्तियों को समझने की शक्तियों का ह्रास अगले 1200 वर्ष (कलियुग) पूर्ण होने पर ईसवी सन 499 में सूर्य अपने महकेन्द्र से दूरस्थ बिंदु पर आ गया था। भौतिक जगत से परे कुछ भी समझ पाने की क्षमता मनुष्य में नहीं रही थी । इस प्रकार 499 ईसवी पूरे युगचक्र (24000 वर्ष) का सबसे अंधकारमय काल था इसके पश्चात सूर्य अपने महकेन्द्र के निकटतम बिंदु की ओर बढ़ने लगा और मानव की बुद्धि धीरे धीरे विकसित होने लगी इस उर्ध्वगामी कलियुग के 1100 वर्षों (ईसवी सन 1599) तक मानव बुद्धि जड़ होने के कारण सूक्ष्म शक्तियों का ज्ञान नहीं था राजनीतिक स्तर पर भी कहीं शांति नहीं थी।

इस काल के बाद आरोही द्वापर युग से पहले कलियुग के संधिकाल के 100 वर्षों में विधुयुत शक्तियों सूक्ष्म तत्वों का पुनः ज्ञान होना शुरू हुआ ।

कलियुग के अंत मे दशम अवतार कहीं दसवे गुरु गोविंद सिंह जी ही तो नहीं जिनका जन्म 1666 और निर्वाण 1708 में हुआ था ।

ईसवी सन 1600 में गिल्बर्ट ने चुमवकीय शक्तियों को 1601 में केप्लर ने खगोल विज्ञान के नियमों को गैलीलियो ने टेलेस्कोप को 1621 में ड्रेबल ने माइक्रोस्कोप 1670 में नूतन ने गुरुत्वाकर्षण नियम 1700 में सेवरी ने स्टीम इंजन से पानी खींचने 1720 में स्टीफन ग्रे ने मानव शरीर पर विद्युत शक्ति के परिणाम को पूनह बताया । विज्ञान की पुनः प्रगति के साथ विश्व भर में रेलवे और टेलीग्राफिक तारों का जाल बीच गया ।

1899 में द्वापर युग की संधि के 200 वर्ष पूर्ण होकर 2000 वर्ष अवधि के वास्तविक द्वापर युग की शुरुआत हुई जिसमे विद्युत शक्तियों और उनके गुणधर्म का पूर्ण ज्ञान मानव प्राप्त करेगा।

वर्तमान पंचांगों में कलियुग 432000 वर्षों का क्यों दर्शाया गया है -------

ऐसा होने का कारण है मनुस्मृति में दिए सूत्र में कलयुग की अवधि पृथ्वी के 1200 वर्षों को 1200 दैववर्ष मान लेना जिसमे 30 -30 दैव दिनों के 12 दैव महीने होते हैं और एक दैव दिन पृथ्वी के 1 वर्ष के बराबर होता है ।

इस प्रकार 1200 दैव वर्ष =1200×30×12 = 432000 दैव दिवस = 432000 सौर वर्ष

यह गलती राजा परीक्षित के दरबारी पंडितों के गलत गड़ना के आधार पर हुई है राजा युधिष्ठिर ने जब कलियुग के आगमन से पूर्व हिमालय में जाने का निश्चय किया तो उनके साथ उनके दरबार के सभी ज्ञानीजन भी कलियुग को देखने की अनिच्छा से हिमालय चले गए महाराजा परीक्षित के दरबार मे कोई ऐसा ज्ञानीजन न बचा जो युग युगांतर की कालगड़ना का ज्ञान रखता हो अतः उस समय चल रहे द्वापर युग के 2400 वर्ष में एक कि संख्या जोड़ कर कलियुग के प्रथम वर्ष के स्थान पर 2401 लिखा गया क्योंकि कलियुग के शुरू होने पर बुद्धि अपने निम्नतर स्तर पर चली गयी और यह गलती किसी के ज्ञान में न आई इस प्रकार 1200 वर्ष अवरोही कलियुग के बीतने पर सन 499 ईसवी में कलियुग के चरम बिंदु आया और 1200 वर्ष अवधि का उर्ध्वगामी कलियुग शुरू हुआ जो ईसवी सन 1699 में समाप्त हुआ (गुरु गोविन्द सिंह जी जिनका जन्म कलियुग के आखिरी चरण में सन १६६६ में जन्म लिया और कलियुग की समाप्ति १६९९ के बाद १७०८ में निर्वाण प्राप्त किया शोध का विषय है वही कल्कि अवतार तो नहीं थे ?) और द्वापर के संधिकाल 200 वर्ष की शुरुआत हुई जो 1899 में समाप्त हुआ तब से आज सन 2017 तक 117 वर्ष बीत चुके हैं यानी द्वापर का 318 वा वर्ष चल रहा है ।

यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि कलियुग की समाप्ति पर सीधा सत्ययुग नहीं आता पहले द्वापर फिर त्रेता फिर सत्ययुग आता है सुधार धीरे धीरे होता है रातों रात नहीं । ऐसा संभव नहीं हैं कि कलियुग के आखरी दिन सोये सुबह उठे तो सब कुछ सत्ययुग में अच्छा अच्छा था ।

कहा जाता है २०१८ में कलियुग के 5120 वा वर्ष चल रहा है अब इसमें से द्वापर के 2400 वर्ष घटाने पर (क्योंकि द्वापर के 2400 वर्ष पूर्ण होने पर 1 जोड़ कर ही कलियुग की गिनती शुरू की गई थी)2720 वर्ष शेष रहते हैं जिसमे आरोही कलियुग के 1200 और अवरोही कलियुग के 1200 वर्ष घटाने पर 320 वर्ष शेष रहते हैं जो वर्तमान में द्वापर के 320 वे वर्ष को प्रदर्शित करते हैं।

केवल्य दर्शनम नामक पुस्तक में दिए ज्ञान पर आधारित।

🔱वैज्ञानिक प्रमाण

भगवान श्री राम जी के जन्म-समय पर आधुनिक शोध

युगधर्म का विस्तार के साथ प्रतिपादन इतिहास पुराणों में बहुत मिलता है (देखिये, मत्स्यपुरण 142-144 अ0; गरूड़पुराण 1.223 अध्यय; वनपर्व 149 अध्याय)। किस काल में युग (चतुर्युग) संबंधी पूर्वोक्त धारण प्रवृत्त हुई थी, इस संबंध में गवेषकों का अनुमान है कि खोष्टीय चौथी शती में यह विवरण अपने पूर्ण रूप में प्रसिद्ध हो गया था। वस्तुत: ईसा पूर्व प्रथम शती में भी यह काल माना जाए तो कोई दोष प्रतीत नहीं होता।

🔱कलियुग का आरम्भ

विद्वानों ने कलियुगारंभ के विषय में विशिष्ट विचार किया है। कुछ के विचार से महाभारत युद्ध से इसका आरंभ होता है, कुछ के अनुसार कृष्ण के निधन से तथा एकाध के मत से द्रौपदी की मृत्युतिथि से कलि का आरंभ माना जा सकता है। यत: महाभारत युद्ध का कोई सर्वसंमत काल निश्चत नहीं है, अत: इस विषय में अंतिम निर्णय कर सकना अभी संभव नहीं है।

सोमवार, 23 मई 2022

पर सम्बन्ध विवेचना

 ।।👾हर हर महादेव शम्भो काशी विश्वनाथ वन्दे ।।👾

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👉|||||||| व्यभिचार योग अर्थात्‌ अवैध सम्बंध---

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 👉विवाह पूर्व या विवाहेतर संबंध आज एक आम बात हो गई है। हम भले ही किसी के चेहरे को देखकर इसका पता नहीं चला सकते पर कुण्डली से इस तरह के अवैध संबंधों का पता लगाया जा सकता है।


 👉 हिन्दुस्तान का वो मीठा जहर है जो शरीर में धुल कर आत्मा को भी अपवित्र कर देता है, अवैध संबंध का तात्पर्य सिर्फ शरीर से ही नहीं अपितु मन, वचन, कर्म तथा रक्त के द्वारा सम्पूर्ण भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल को दूषित करने के साथ-साथ बच्चों एवं परिवार की नजरों में मनुष्यों को तुच्छ बनाकर घृणित कर्म मार्ग पर ला कर खड़ा करता हैं। अवैध संबंधों के लिए कोई एक दोषी नहीं होता, स्त्री और पुरुष दोनों से मिलकर ही अवैध संबंध का निर्माण होता है। विवाहित या अविवाहित कोई भी पुरुष अथवा स्त्री हो, जो अपने जीवनसाथी के अलावा किसी अन्य से यौन संबंध स्थापित करें तो उसकी गिनती अवैध संबंधों में होती है इसके लिए केवल स्त्री ही जिम्मेदार नहीं बल्कि इसमें पुरुष वर्ग का विशेष हाथ होता है, किन्तु पुरुष के अवैध संबंध के लिए स्त्री ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, इस सत्य को स्वीकार करना आसान नहीं है क्योंकि सत्य बड़ा कठोर होता है। पुरुष जब किसी अन्य स्त्री से अवैध संबंध स्थापित करने के लिए छल, दुष्टपूर्ण नीतियों और कुटिलताओं से स्त्री को आकर्षित करने की चेष्टा करता हैं तो स्त्री अगर उस समय चाहे तो कोई भी संसार का पुरुष उसको उसके मन के विरुद्ध  किसी अन्य मार्ग पर नहीं ले जा सकता, ये शक्ति नारी जाति में स्वत: व्याप्त है किन्तु इसको समझना या ना समझना ये भिन्न-भिन्न स्त्रियों पर निर्भर करता है फिर भी कई बार इस तरह की परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं कि पुरुष किसी दूसरी स्त्री के सम्पर्क में चला जाता है या स्त्री किसी अन्य पुरुष का साथ चाहने लगती है इसका सीधा संबंध पति अथवा पत्नी की कामवासना, प्यार और सांसारिक वस्तुओं को प्राप्त करने से होता है।


 👉अवैध संबंध का सीधा अर्थ यौन इच्छा से है, पति द्वारा प्यार-प्रेम, मान और सम्मान न मिलने के कारण भी कई स्त्रियां किसी परपुरुष का संग चाहती है ताकि वो अपने मन में दबी भावनाओं को प्रकट कर सके, इसी अवसर का लाभ उठाकर कई दुष्ट प्रवृत्ति के पुरुष उसके स्त्रीतत्व को भंग कर अवैध संबंध बना लेते हैं।


 👉 कामवासना भी शरीर और जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है इसकी तृप्ति करना भी परमावश्यक है किन्तु वासना की तृप्ति के साथ प्रेम का रस मिला देने से वो 'योग' बनता है, जिससे सृष्टि का निर्माण होता है इसलिए पति अथवा पत्नी दोनों को अपने जीवनसाथी के साथ दाम्पत्य जीवन में वासना के साथ प्रेम का निर्माण भी करना चाहिए, एक दूसरे की वेदना और भावना को समझना चाहिए। पति अथवा पत्नी दोनों में से कोई भी एक यौनक्रिया में सफल ना भी हो, तो भी अगर दोनों में प्रेम है तो उनका ​शुद्ध​  प्रेम कामवासना पर विजय प्राप्त कर अवैध संबंध जैसे जहर पर अंकुश लगा सकता है।


 👉ज्योतिष शास्त्र में अवैध संबंध जैसे विषय पर भी स्पष्टता मिलती है चन्द्रमा मन का कारक होता है और कामवासना मन से जागती है। लग्न व्यक्ति स्वयं होता है पंचम भाव प्रेमिका और सप्तम भाव पत्नी का होता है एवं शुक्र भोग विलास का कारक है, शनि, राहू, मंगल और पंचम भाव, पंचमेश, द्वादश और द्वादशेश का आपस में संबंध होना जातक के विवाह पूर्व एवं पश्चात अवैध संबंध स्थापित करवाते हैं। जन्म कुंडली में सप्तम भाव पर शनि की चन्द्रमा के साथ युति जहां जातक को मानसिक रूप से पीड़ित करती है वहीं प्रेम संबंध भी करवाती है। कुछ ऐसे ज्योतिषीय योगों का उल्लेख कर रहा हूं, जिनके जन्म कुंडली में होने से, जातक का अवैध संबंध और कामुक होने का संकेत मिलता है:


1-👉--जन्म कुंडली में शनि और शुक्र की युति, वैवाहिक जीवन में किसी अन्य का आना बताता है।


-2-👉-  पंचम भाव में शनि, शुक्र और मंगल की युति अवैध संबंध का निर्माण करती है।


3-👉--  मेष या वृश्चिक राशि में मंगल के साथ शुक्र के होने से पराई स्त्री से घनिष्ठा बनती है।


--4--👉  जन्म कुंडली में चन्द्रमा से द्वितीय स्थान में शुक्र हो तो 'सुनफा योग' बनता है । ऐसा जातक भौतिक सुखों की प्राप्ति करता हैं उसका सौन्दर्य आकर्षक होता है अन्य स्त्रियों से शारीरिक संबंध की प्रबल संभवना होती है।


-- 5--👉 द्वितीय, छठे और सप्तम भाव के किसी भी स्वामी के साथ शुक्र की युति लग्न में होने से जातक का चरित्र संदेहप्रस्त होता है।


-6--👉-  सूर्य और शुक्र की युति मीन लग्न में होने से जातक को अत्यंत कामुक बनाती है उसका अवैध संबंध बनता है तथा ऐसे जातक की  कामवासना की तृप्ति शीघ्र नहीं होती।


7--👉--  बुध और शुक्र की युति यदि सप्तम भाव में हो तो जातक अवैध संबंधों के लिए नूतन तरीके अपनाता हैं।


-8--👉-  शनि, मंगल और शुक्र का काम वासना से घनिष्ठ संबंध है यदि जन्म कुंडली में शनि और मंगल की युति सप्तम भाव पर हो तो जातक समलिंगी होता है। ये ही युति यदि अष्टम, नवम, द्वादश भाव पर हो तो जातक का अपने बड़ों से अवैध संबंध होता हैं।


-9--👉- मंगल और राहू की युति अथवा दृष्टि शुक्र पर हो तो जातक कामुक होता है एवं अवैध संबंध बनाने के लिए उसका मन भटकता है।


10--👉-- लग्न, चतुर्थ, सप्तम, दशम भाव में गुरु पर मंगल शुक्र का प्रभाव और चन्द्रमा पर राहू का प्रभाव हो तो व्यक्ति अवैध संबंध बनाने के लिए सभी सीमाओं का उल्लंघन कर देता है।


-11--👉-  लग्न में शनि का होना जातक को कामवासना अधिक देता है, पंचम भाव में शनि होने से अपने से बड़ी स्त्रियों के प्रति अवैध संबंध बनाने के लिए जातक को आकर्षित करता है।


12--👉--  शनि का सप्तम भाव में चन्द्रमा के साथ होना और मंगल की दृष्टि पड़ने से जातक वेश्यागामी होता है इसी योग में अगर शुक्र का संबंध दृष्टि अथवा युति से बन जाए तो अवैध संबंध निश्चित हो जाता है।


--13---👉  चन्द्रमा जन्म कुंडली में कहीं पर भी नीच को होकर बैठा हो और उस पर पाप प्रभाव हो तो जातक अपने नौकर/नौकरानी से अवैध संबंध बनवाता है यहीं चन्द्रमा अगर दूषित होकर नवम भाव में स्थित हो तो जातक अपने गुरु अथवा अपने से बड़ों के साथ अवैध संबंध बनाता है।


--14--👉  मंगल रक्त को दर्शता है जन्म कुंडली में किसी पाप ग्रह के साथ मंगल की युति सप्तम भाव में हो या सूर्य सप्तम में और मंगल चतुर्थ स्थान में हो अथवा चतुर्थ भाव में राहू हो तो व्यक्ति कामुकता में अंध होकर पशु समान कार्य करता है।


--15--👉  राहू का अष्टम भाव में होना जातक का अवैध संबंध कराता है।


--16--👉 तुला राशि में चार ग्रह एक साथ होने से जातक के परिवार में कलेश उत्पन्न करते है जिसके कारण जातक बाहर अवैध संबंध बनाता है।


17--👉-- शनि का दशम भाव में होना जातक के मन में विरोधाभास उत्पन्न करता है। शुक्र और मंगल की युति जन्म कुंडली में कहीं पर भी हो एवं शनि दशम भाव में हो तो जातक ज्ञानवान भी होता है एवं काम वासना और अवैध संबंधों को गंभीरता से लेता है उसका मन स्थिर नहीं रह पाता, कभी ज्ञानी बन जाता है कभी अवैध संबंधों का दास।


18---👉-- बुध और शनि का संबंध सप्तम भाव से हो तो ऐसे जातक यौनक्रियाओं में नीरस एवं अयोग्य होते हैं।


19--👉--  सूर्य का सप्तम भाव में होना जातक के वैवाहिक जीवन में कलेश उत्पन्न करता है, इससे परेशान होकर जातक अवैध संबंध बनाता है।


20--👉-- सप्तम भाव में राहू और शुक्र हो अथवा राहू और चन्द्रमा की युति हो तथा गुरु द्वादश भाव में स्थित हो तो विवाह पश्चात कार्यालयों में ही अवैध-संबंध बनते हैं। 


-21-👉-  बुध और शनि की युति यदि द्वादश भाव में हो तो जातक शीघ्रपतन का रोगी बन जाता है और इसी योग में यदि लग्न, सप्तम और अष्टम भाव में राहू हो तो व्यक्ति अपनी जवानी को स्वयं नष्ट करता है एवं उसका जीवनसाथी किसी अन्य से शरीरिक तृप्ति लेता है।


-22--👉-  मंगल जोश और शुक्र भोग एवं द्वादश भाव अवैध संबंध में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है यदि मंगल, शुक्र और द्वादश भाव का स्वामी का संबंध सप्तम भाव से हो तो व्यक्ति लंपट होता है एवं कई स्त्रियों से उसका अवैध संबंध होता है। इन्हीं तीनों का योग चतुर्थ या द्वादश भाव में हो तो जातक अत्यंत कामी होता है और अपने जीवन में मर्यादा त्याग कर अधिक अवैध संबंध बनाता है।  लग्नेश एकादश में स्थित हो और उस पर पाप प्रभाव हो तो जातक अप्राकृतिक यौनक्रियाएं की तृप्ति हेतु अवैध संबंध बनाता है। 


 23---👉 जन्म कुंडली में चन्द्रमा, मंगल, शुक्र, राहू, सप्तम भाव, पंचम भाव और द्वादश भाव अवैध संबंध का निर्माण करते हैं। 


24--👉मंगल शारीरिक शक्ति का कारक है तथा विवाह के पश्चात जो संबंध बनते हैं उसको भी दर्शाता है। शुक्र तो स्वयं भोग विलास है, विपरित लिंग व अन्यों को आकर्षित कराता है, कामेच्छा जगाता है, रोमांस देता है। शनि वैराग्य भी देता है, आलोचना और योगों में अवैध संबंधों के कारक का भी कार्य करता है l


विशेष ---👉अवैध संबंधों के योगों को देखने से पूर्व जन्म कुंडली में शुभ ग्रहों, और अन्य योगों का भी निरीक्षण करना चाहिए क्योंकि कई बार ऐसा होता है जन्म कुंडली में अवैध संबंध योग बन रहा है किन्तु वहीं पर जन्म कुंडली मेें पतिव्रता/एक पत्नीव्रत का भी योग है इन दोनों योगों में से जो योग बलवान होगा जातक वैसा ही होगा। शुक्र और सूर्य की युति लग्न में जहां व्यक्ति को व्याभिचार देती है वहीं किसी शुभ ग्रह की युति अथवा दृष्टि उसके व्याभिचार योग को नष्ट कर देती है। ऐसे ही मंगल और शुक्र की युति पंचम भाव में अवैध संबंध के स्थान पर प्रेम भी देती है अत: जन्म कुंडली का पूर्ण निरीक्षण करने के पश्चात ही फलादेश करना चाहिए।

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सोमवार, 25 अप्रैल 2022

हृदय रेखा और ईष्ट

 हाथ की रेखाएं बता देती हैं कि किस देवी-देवता की पूजा आपके लिए ज्यादा लाभकारी होगी ।

- यदि आपेक हाथ की हृदय रेखा पर त्रिशूल बनता हो, उंगलियां चाहे टेढ़ी-मेढ़ी हों तो ऐसे लोंगो के ईष्ट देव भगवान शिव माने जाते है और उन्हें जीवन में आने वाले कष्टों से मुक्ति के लिए शिव की आराधना करना चाहिए, एवं इस मंत्र- ऊँ नमः शिवाय का जप 108 बार करना चाहिए ।


- यदि हृदयरेखा के अंत पर एक शाखा गुरु पर्वत पर जाती हो तो इन्हें रांम भक्त श्री हनुमान जी का पूजन करना चाहिए, जो जीवन में आने वाली विपदाओं को दूर करते है, साथ ही इस मंत्र का 108 बार जप- ऊँ नमो हनुमंता एवं हनुमान चालीसा का पाठ करने से सुख शांति मिलती है ।


- यदि भाग्य रेखा खंडित हो व इसमें दोष हो तो ऐसे लोगों को लक्ष्मी माता का ध्यान या लक्ष्मी मंत्र का जप करना चाहिए । मात लक्ष्मी को ईष्ट मानकर इस मंत्र - ऊँ श्रीं, ह्रीं, श्रीं कमले कमलालये प्रसीद-प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं सिद्ध लक्ष्म्यै नमः । का जप करना चाहिए ।


- यदि हाथ में सूर्य ग्रह दबा हुआ हो, व्यक्ति को शिक्षा में पूर्ण सफलता न मिल पा रही हो, मस्तिष्क रेखा खराब हो, तो सूर्य ईष्ट मानकर सूर्य मंत्र का 108 बार जप करने के बाद सूर्य को अर्घ्य देना चाहिए । सूर्य मंत्र- ऊँ ह्रां, ह्रीं, ह्रौं सः सूर्याय नमः ।


5- यदि जीवन रेखा व भाग्य रेखा को कई मोटी रेखाएं काटें तो इनके जीवन में प्रत्येक व्यवसाय में रुकावट आती है तो इस रुकावट को दूर करने के लिए इस मंत्र - ऊँ श्रीं, ह्रीं, श्रीं कमले कमलालये प्रसीद-प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं सिद्ध लक्ष्म्यै नमः । का जप करना चाहिए ।


6- यदि सभी ग्रह सामान्य हों, जीवन रेखा टूटी हो तो ये जीवन में दुर्घटनाओं का ***** है । ऐसे लोगों को भगवान शिव को ईष्ट मानकर शिव स्तोत्र या ऊँ नमः शिवाय का जप नियमित करना चाहिए ।


7- यदि हृदय रेखा खंडित हो और साथ में हृदय रेखा से अनेक शाखाएं मस्तिष्क रेखा पर आ रही हों तो इन्हें मां दुर्गा का पूजन तथा दुर्गा सप्तशती का नित्य पाठ करना चाहिए । ऐसा करने से मन का विचलन शांत होता है तथा इससे उसकी निर्णय क्षमता में वृद्धि होने लगती है ।


8- यदि हृदय रेखा व मस्तिष्क रेखा एक हो या मस्तिष्क रेखा मंगल क्षेत्र तक जाती हो तो इन्हें भगवान कृष्ण का ध्यान व पूजा करनी चाहिए, साथ ही इस मंत्र- ऊँ नमोः भगवते वासुदेवाय नमः का जप 108 बार करना चाहिए । इससे व्यक्ति को संतान सुख व वंश की प्राप्ति होती है ।


- यदि हाथ में भाग्य रेखा लंबी हो, जीवन रेखा गोल हो, हृदय रेखा सुंदर हो तो इन्हें मर्यादा पुरुषोम श्रीराम को ईष्ट मानकर पूजन करना चाहिए । ऐसे लोग राम नाम का 1100 बार जप करने से जीवन सुखमय बन जाता है ।


यदि हाथ में शनि की अंगुली सीधी हो, शनि ग्रह मध्य हो तो ऐसे व्यक्तियों को शनि देव की स्तुति अवश्य करनी चाहिए । नित्य शनि मंत्र का 108 बार जप करने से मनुष्य के जीवन में सुख शांति व समृद्धि आती है । शनि मंत्र - ऊँ प्रां प्रीं प्रौं सह शनिश्चराय नमः ।

गुरुवार, 7 अप्रैल 2022

श्रीराम जन्म रहस्य

 II जय श्रीराघव II


“ श्रीरामजन्म रहस्य “

पोस्ट संख्या – ४/४ (अन्तिम)


कुछ महानुभवोंका मत है कि सांगोपांग शेषशायी भगवान् का आविर्भाव चार रूपोंमें होता है । साक्षात् भगवान् श्रीरामरूपमें और शेष, शंख, चक्र ये लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न रूपमें प्रकट होते हैं । आधे अंशमें राम और आधेमें लक्ष्मण प्रभृति तीनों भ्राता । दूसरे शब्दोंमें यह भी कहा जा सकता है कि सप्रपञ्च ब्रह्मका भरतादि तीन रूपमें प्राकट्य हुआ और निष्प्रपञ्च ब्रह्मका श्रीरामरूपमें आविर्भाव हुआ ।


प्रणवके ‘अ’ ‘उ’ ‘म्’ इन तीन मात्राओंके वाच्य विराट्, हिरण्यगर्भ, अव्याकृतका शत्रुघ्न, लक्ष्मण तथा भरतरूपमें आयर अर्द्धमात्राका अर्थ तुरीयपाद या वाच्यवाचकातीत, सर्वाधिष्ठान परम तत्त्वका श्रीरामरूपमें प्रादुर्भाव हुआ । निष्प्रपञ्च अर्द्धमात्राका अर्थ तुरीय तत्त्व ही चरुके अर्द्ध अंशसे और शेष तीन मात्राओंके अर्थ सप्रपञ्च तीनों तत्त्व चरुके अर्द्ध अंशसे व्यक्त हुए । प्रणवकी जैसे साढ़े तीन मात्रा मानी गयी है, वैसे ही सोलह मात्र भी मानी जाती है । ‘अकारो वै सर्वा वाक् ।‘ समस्त वाक्योंका अन्तर्भाव अकारमें ही होता । अतः प्रणवमें ही सोलह मात्राकी कल्पना करके उसके सोलह वाच्य स्थिर किये गये हैं । जाग्रत-अवस्थाका अभिमानी व्यष्टि विश्व और समष्टि स्थूल प्रपञ्चका अभिमानी विराट् होता है । सूक्ष्म प्रपञ्च और स्वप्नावस्थाका अभिमानी तैजस और हिरण्यगर्भ एवं कारण प्रपञ्च, सुषुप्ति-अवस्थाका अभिमानी प्राज्ञ और अव्याकृत होता है ।इन सभी कल्पनाओंका अधिष्ठान शुद्ध ब्रह्म तुरीय तत्त्व होता है ।


इस पक्षमें ‘तुरीय विराट्’ शत्रुघ्न, ‘तुरीय हिरण्यगर्भ’ लक्ष्मण, ‘तुरीय अव्याकृत’ भरत और ‘तुरीय तुरीय’ श्रीमद्राघवेन्द्र रामचन्द्ररूपमें प्रकट होते हैं, और उनकी माधुर्याधिष्ठात्री महाशक्ति, श्रीजनक-नन्दिनीरूपमें प्रकट होती हैं । सर्वथा पूर्णतम पुरुषोत्तम वेदान्तवेद्य भगवान् का ही श्रीरामचन्द्र-रूपमें प्राकट्य होता है तभी तो उनके दर्शन, स्पर्शन, श्रवण, अनुगमन मात्रसे प्राणियोंकी परमगति हो जाती है –

स यैः स्पृष्टोऽभिदृष्टो वा संविष्टोऽनुगतोऽपि वा ।

कोसलास्ते ययुः स्थानं यत्र गच्छन्ति योगिनः ।।

जो परम तत्त्व विषय, करण, देवताओं तथा जीवको भी सत्ता-स्फूर्ति प्रदान करनेवाला है, वही श्रीरामचन्द्ररूपमें प्रकट होता है ।


बिषय करन सुर जीव समेता । सकल एक तें एक सचेता ।।

सब कर परम प्रकासक जोई । राम अनादि अवधपति सोई ।।

समष्टि-व्यष्टि, स्थूल-सूक्ष्मकारण समस्त प्रपञ्चमय क्षेत्रके कूटस्थ निर्विकार भासक ही राम हैं – ‘ जगत प्रकास्य प्रकासक रामू ।‘

जिनके अनुग्रहसे एवं जिनमें सब रमण करते हैं और जो सर्वान्तरात्मा रूपसे सबमें रमण करते हैं वे ही मर्यादापुरुषोत्तम रामचन्द्र हैं । जिन आनन्दसिन्धु सुखराशिके एक तुषारसे अनन्त ब्रह्माण्ड आनन्दित होता है वे ही जीवोंके जीवन, प्राणोंके प्राण, आनन्दके भी आनन्द भगवान् ‘राम’ हैं ।

(गोताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘कल्याण – श्रीरामभक्ति अंक’से)

******* सियावर रामचन्द्रकी जय *******

धातु विज्ञान

 #धातु_विज्ञान (#Metallurgy ) - 

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धातु विज्ञान का भारत में प्राचीन काल से व्यावहारिक जीवन में उपयोग होता रहा है। यजुर्वेद के एक मंत्र में निम्न उल्लेख आया है-


अश्मा च मे मृत्तिका च मे गिरयश्च में पर्वताश्च में सिकताश्च में वनस्पतयश्च मे हिरण्यं च मेऽयश्च में श्यामं च मे लोहं च मे सीस च में त्रपु च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्‌ (कृ.यजु. ४-७-५)


मेरे पत्थर, मिट्टी, पर्वत, गिरि, बालू, वनस्पति, सुवर्ण, लोहा लाल लोहा, ताम्र, सीसा और टीन यज्ञ से बढ़ें।


रामायण, महाभारत, पुराणों, श्रुति ग्रंथों में भी सोना (सुवर्ण, हिरण्य), लोहा (स्याम), टिन (त्रपु), चांदी (रजत), सीसा, तांबा, (ताम्र), कांसा आदि का उल्लेख आता है। 


धातु विज्ञान से सम्बंधित व्यवसाय करने वाले कुछ लोगों के नाम-


कर्मरा- कच्ची धातु गलाने वाले

धमत्र - भट्टी में अग्नि तीव्र करने वाले

हिरण्यक - स्वर्ण गलाने वाले

खनक - खुदाई कर धातु निकालने वाले। 


चरक, सुश्रुत, नागार्जुन ने स्वर्ण, रजत, ताम्र, लौह, अभ्रक, पारा आदि से औषधियां बनाने की विधि का विस्तार से अपने ग्रंथों में वर्णन किया है। केवल प्राचीन ग्रंथों में ही विकसित धातु विज्ञान का उल्लेख नहीं मिलता, अपितु उसके अनेक प्रमाण आज भी उपलब्ध होते हैं। कुछ उदाहरण-


(१) जस्ता- 

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 धातु विज्ञान के क्षेत्र में जस्ते की खोज एक आश्चर्य है। आसवन प्रक्रिया के द्वारा कच्चे जस्ते से शुद्ध जस्ता निकालने की प्रक्रिया निश्चय ही भारतीयों के लिए गर्व का विषय है। राजस्थान के ‘जवर‘ क्षेत्र में खुदाई के दौरान ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में इसके निर्माण की प्रक्रिया के अवशेष मिले हैं। मात्र दस फीसदी जस्ते से पीतल सोने की तरह चमकने लगता है। जवर क्षेत्र की खुदाई में जो पीतल की वस्तुएं प्राप्त हुई हैं उनका रासायनिक विश्लेषण करने पर पाया गया कि इनमें जस्ते की मात्रा ३४ प्रतिशत से अधिक है, जबकि आज की ज्ञात विधियों के अनुसार सामान्य स्थिति में पीतल में २८ प्रतिशत से अधिक जस्ते का सम्मिश्रण नहीं हो पाता है।


जस्ते को पिघलाना भी एक जटिल प्रक्रिया है, क्योंकि सामान्य दबाव में यह ९१३०से. तापक्रम पर उबलने लगता है। जस्ते के आक्साइड या कच्चे जस्ते से शुद्ध जस्ता प्राप्त करने के लिए उसे १२०००से. तापक्रम आवश्यक है, लेकिन इतने तापक्रम पर जस्ता भाप बन जाता है। अत: उस समय पहले जस्ते का आक्साइट बनाने के लिए कच्चे जस्ते को भूंजते थे, फिर भुंजे जस्ते को कोयला व अपेक्षित प्रमाण में नमक मिलाकर मिट्टी के मटकों में तपाया जाता था तथा ताप १२०००से पर बनाए रखा जाता था। इस पर वह भाप बन जाता था, परन्तु भारतीयों ने उस समय विपरीत आसवनी नामक प्रक्रिया विकसित की थी। इसके प्रमाण जवर की खुदाई में मिले हैं। इसमें कार्बन मोनोआक्साइड के वातावरण में जस्ते के आक्साइड भरे पात्रों को उल्टे रखकर गर्म किया जाता था। जैसे ही जस्ता भाप बनता, ठीक नीचे रखे ठंडे स्थान पर पहुंच कर धातु रूप में आ जाता था और इस प्रकार शुद्ध जस्ते की प्राप्ति हो जाती थी। जस्ते को प्राप्त करने की यह विद्या भारत में ईसा के जन्म से पूर्व से प्रचलित रही।


यूरोप के लोग १७३५ तक यह मानते थे कि जस्ता एक तत्व के रूप में अलग से प्राप्त नहीं किया जा सकता। यूरोप में सर्वप्रथम विलियम चैम्पियन ने जस्ता प्राप्त करने की विधि व्रिस्टल विधि के नाम से पेटेंट करवाई और यह नकल उसने भारत से की, क्योंकि तेरहवीं सदी के ग्रंथ रसरत्नसमुच्चय में जस्ता बनाने की जो विधि दी है, व्रिस्टल विधि उसी प्रकार की है। 


(२) लोहा- 

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 इतिहास में भारतीय इस्पात की श्रेष्ठता के अनेक उल्लेख मिलते हैं। अरब और फारस में लोग भारतीय इस्पात की तलवार के लिए लालायित रहते थे। अंग्रेजों ने सर्वाधिक कार्बन युक्त इस्पात को बुट्ज नाम दिया। प्रसिद्ध धातु वैज्ञानिक तथा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रो. अनंतरमन ने इस्पात बनाने की सम्पूर्ण विधि बताई है। कच्चे लोहे, लकड़ी तथा कार्बन को मिट्टी की प्यालियों में १५३५०से. ताप पर गर्म कर धीरे-धीरे २४ घण्टे में ठण्डा करने पर उच्च कार्बन युक्त इस्पात प्राप्त होता है। इस इस्पात से बनी तलवार इतनी तेज तथा मजबूत होती है कि रेशम को भी सफाई से काट देती है।


१८वीं सदी में यूरोपीय धातु विज्ञानियों ने भारतीय इस्पात बनाने का प्रयत्न किया, परन्तु असफल रहे। माइकेल फैराडे ने भी प्रयत्न किया, पर असफल रहा। कुछ ने बनाया तो उसमें वह गुणवत्ता नहीं थी।


श्री धर्मपाल जी ने अपनी पुस्तक लिखे थे सितम्बर, १७१५ को डा. बेंजामिन हायन ने जो रपट ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भेजी, उसमें वह उल्लेख करता है कि रामनाथ पेठ (तत्कालीन मद्रास प्रान्त में बसा) एक सुन्दर गांव है। यहां आस-पास खदानें हैं तथा ४० इस्पात की भट्टियां हैं। इन भट्टियों में इस्पात निर्माण के बाद उसकी कीमत २ रु. मन पड़ती है। अत: कम्पनी को इस दिशा में सोचना चाहिए।


दूसरी रपट मेजर जेम्स फ्र्ैंकलिन की है जिसमें वह सेंट्रल इंडिया में इस्पात निर्माण के बारे में लिखता है। इसमें वह जबलपुर, पन्ना, सागर आदि स्थानों की लौह खदानों का वर्णन करता है तथा इस्पात बनाने की प्रक्रिया के बारे में वह कहता है चारकोल सारे हिन्दुस्तान में लोहा बनाने के काम में प्रयुक्त होता है। जिस भट्टी का उल्लेख करता है, उसका निर्माण किया गया है। उसमें सभी भाग बराबर औसत १९-२०  -लम्बाई मापने की प्राचीन इकाई, लगभग १८ इंच इसका माप था। और १६ छोटी  के थे। वह इस फर्नेस को बनाने की विधि का वर्णन करता है। फर्नेस बनाने पर उसके आकार को वह नापता है तो पूरी भट्टी में वह पाता है कि एक ही प्रकार की नाप है। लम्बाई सवा ४ भाग तो चौड़ाई ३ भाग होगी और मोटाई डेढ़ भाग। आगे वह लिखता है (१) गुडारिया (२) पचर (३) गरेरी तथा (४) अकरिया-ये उपांग इसमें लगाए जाते हैं। बाद में जब भट्टी पूरी तरह सूख जाती है तो उसे काम में लाया जाता है। भट्टी के बाद धोंकनी उसका मुंह बनाने की विधि, उसके बाद भट्टी से जो कच्चा लोहा निकलेगा उसे शुद्ध करने की रिफायनरी का वर्णन करता है। फिर उससे इस्पात बनाने की प्रक्रिया तथा मात्रा का निरीक्षण उसने ३० अप्रैल, १८२७ से लेकर ६ जून, १८२७ तक किया। इस बीच ४ फरनेस से २२३५ मन इस्पात बना और इसकी विशेषता गुणवत्ता तथा विभिन्न तापमान एवं परिस्थिति में श्रेष्ठता की वह मुक्तकंठ से प्रशंसा करता है। उस समय एक मन की कीमत पौने बारह आना थी। सवा ३१ मन उ १ इंग्लिश टन।


मेजर जेम्स फ्र्ैंकलिन सागरमिंट के कप्तान प्रेसग्रेव का हवाला देते हुए कहता है कि भारत का सरिया (लोहा) श्रेष्ठ स्तर का है। उस स्वीडन के लोहे को भी वह मात देता है जो यूरोप में उस समय सर्वश्रेष्ठ माना जाता था।


तीसरी रपट कैप्टन डे. कैम्पबेल की है जो १८४२ की है। इसमें दक्षिण भारत में लोहे के निर्माण का वर्णन है। ये सब रपट कहती हैं कि उस समय देश में हजारों छोटी-छोटी इस्पात निर्माण की भट्टियां थीं। एक भट्टी में ९ लोगों को रोजगार मिलता था तथा उत्कृष्ट प्रकार का सस्ता लोहा बनता था। वैसा दुनिया में अन्य किसी देश में संभव नहीं था। कैम्पबेल ने रेलगाड़ी में लगाने के लिए बार आयरन की खोज करते समय बार-बार कहा, यहां का (भारत का) बार आरयन उत्कृष्ट है, सस्ता है। इंग्लैण्ड का बढ़िया लोहा भी भारत के घटिया लोहे का मुकाबला नहीं कर सकता। उस समय ९० हजार लोग इन भट्टियों में काम करते थे। अंग्रेजों ने १८७४ में बंगाल आयरन कंपनी की स्थापना कर बड़े पैमाने पर उत्पादन चालू किया। परिणामस्वरूप धीरे-धीरे गांव-गांव में बनने वाले इस्पात की खपत कम होती गई और उन्नीसवीं सदी के अन्त तक स्वदेशी इस्पात बनना लगभग बंद हो गया। अंग्रेजों ने बड़े कारखाने लगाकर स्वदेशी प्रौद्योगिकी की कमर तोड़ दी। इसका दु:खद पक्ष यह है कि भारतीय धातु प्रौद्योगिकी लगभग लुप्त हो गई। आज झारखंड के कुछ वनवासी परिवारों में इस तकनीक के नमूने मात्र रह गए हैं। 


#दिल्ली_स्थित_लौह_स्तंभ


नई दिल्ली में कुतुबमीनार के पास लौह स्तंभ विश्व के धातु विज्ञानियों के लिए आकर्षण का केन्द्र रहा है। लगभग १६००० से अधिक वर्षों से यह खुले आसमान के नीचे सदियों से सभी मौसमों में अविचल खड़ा है। इतने वर्षों में आज तक उसमें जंग नहीं लगी, यह बात दुनिया के लिए आश्चर्य का विषय है। जहां तक इस स्तंभ के इतिहास का प्रश्न है, यह चौथी सदी में बना था। इस स्तम्भ पर संस्कृत में जो खुदा हुआ है, उसके अनुसार इसे ध्वज स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था। चन्द्रराज द्वारा मथुरा में विष्णु पहाड़ी पर निर्मित भगवान विष्णु के मंदिर के सामने इसे ध्वज स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था। इस पर गरुड़ स्थापित करने हेतु इसे बनाया गया होगा, अत: इसे गरुड़ स्तंभ भी कहते हैं। १०५० में यह स्तंभ दिल्ली के संस्थापक अनंगपाल द्वारा लाया गया।

इस स्तंभ की ऊंचाई ७३५.५ से.मी. है। इसमें से ५० सेमी. नीचे है। ४५ से.मी. चारों ओर पत्थर का प्लेटफार्म है। इस स्तंभ का घेरा ४१.६ से.मी. नीचे है तथा ३०.४ से.मी. ऊपर है। इसके ऊपर गरुड़ की मूर्ति पहले कभी होगी। स्तंभ का कुल वजन ६०९६ कि.ग्रा. है। १९६१ में इसके रासायनिक परीक्षण से पता लगा कि यह स्तंभ आश्चर्यजनक रूप से शुद्ध इस्पात का बना है तथा आज के इस्पात की तुलना में इसमें कार्बन की मात्रा काफी कम है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के मुख्य रसायन शास्त्री डा. बी.बी. लाल इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इस स्तंभ का निर्माण गर्म लोहे के २०-३० किलो को टुकड़ों को जोड़ने से हुआ है। माना जाता है कि १२० कारीगरों ने पन्द्रह दिनों के परिश्रम के बाद इस स्तम्भ का निर्माण किया। आज से सोलह सौ वर्ष पूर्व गर्म लोहे के टुकड़ों को जोड़ने की उक्त तकनीक भी आश्चर्य का विषय है, क्योंकि पूरे लौह स्तम्भ में एक भी जोड़ कहीं भी दिखाई नहीं देता। सोलह शताब्दियों से खुले में रहने के बाद भी उसके वैसे के वैसे बने रहने (जंग न लगने) की स्थिति ने विशेषज्ञों को चकित किया है। इसमें फास्फोरस की अधिक मात्रा व सल्फर तथा मैंगनीज कम मात्रा में है। स्लग की अधिक मात्रा अकेले तथा सामूहिक रूप से जंग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा देते हैं। इसके अतिरिक्त ५० से ६०० माइक्रोन मोटी (एक माइक्रोन याने १ मि.मी. का एक हजारवां हिस्सा) आक्साइड की परत भी स्तंभ को जंग से बचाती है। 


(३) पारा -

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यूरोप में १७वीं सदी तक पारा क्या है, यह वे जानते नहीं थे। अत: फ्र्ांस सरकार के दस्तावेजों में इसे दूसरी तरह की चांदी ‘क्विक सिल्वर‘ कहा गया, क्योंकि यह चमकदार तथा इधर-उधर घूमने वाला होता है। वहां की सरकार ने यह कानून भी बनाया था कि भारत से आने वाली जिन औषधियों में पारे का उपयोग होता है उनका उपयोग विशेषज्ञ चिकित्सक ही करें।

भारतवर्ष में लोग हजारों वर्षों से पारे को जानते ही नहीं थे अपितु इसका उपयोग औषधि विज्ञान में बड़े पैमाने पर होता था। विदेशी लेखकों में सर्वप्रथम अलबरूनी ने, जो ११वीं सदी में भारत में लम्बे समय तक रहा, अपने ग्रंथ में पारे को बनाने और उपयोग की विधि को विस्तार से लिखकर दुनिया को परिचित कराया। पारे को शुद्ध कर उसे उपयोगी बनाने की विधि की आगे रसायनशास्त्र सम्बंधी विचार करते समय चर्चा करेंगे। परन्तु कहा जाता है कि सन्‌ १००० में हुए नागार्जुन पारे से सोना बनाना जानते थे। आश्चर्य की बात यह है कि स्वर्ण में परिवर्तन हेतु पारे को ही चुना, अन्य कोई धातु नहीं चुनी। आज का विज्ञान कहता है कि धातुओं का निर्माण उनके परमाणु में स्थित प्रोटॉन की संख्या के आधार पर होता है और यह आश्चर्य की बात कि पारे में ८० प्रोटॉन-इलेक्ट्रान तथा सोने में ७९ प्रोटॉन-इलेक्ट्रान होते हैं। 


(४) सोना-चांदी 

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क्र ए.डेल्मर अपनी पुस्तक में उल्लेख करता है कि सिन्धु नदी के उद्गम स्थल पर दो सरोवर हैं जिनका नाम स्वर्ण और रजत के कण वहां की सारी मिट्टी में प्राप्त होते हैं।

ऋग्वेद के छठे मंडल के ६१वें सूक्त का सातवां मंत्र सरस्वती और सिन्धु को हिरण्यवर्तनी कहता है।


रामायण, महाभारत, श्रीमद्‌ भागवद्‌, रघुवंश, कुमारसंभव आदि ग्रंथों में सोने व चांदी का उल्लेख मिलता है। स्वर्ण की भस्म बनाकर उसके औषधीय उपयोग की परम्परा शताब्दियों से भारत में प्रचलित रही है।


इसी प्रकार सोने, तांबे  तथा शीशे  के उपयोग के संदर्भ-अथर्ववेद, रसतरंगिणी, रसायनसार, शुक्रनीति, आश्वालायन गृह्यसूत्र, मनु स्मृति में मिलते हैं। रसरत्न समुच्चय ग्रंथ में अनेक धातुओं को भस्म में बदलने की विधि तथा उनका रोगों के निदान में उपयोग विस्तार के साथ लिखा गया है। इससे ज्ञान होता है कि धातु विज्ञान भारत में प्राचीन काल से विकसित रहा और इसका मानव कल्याण के लिए उपयोग करने के लिए विचित्र विधियां भारत में विकसित की गएं। 


#केरल_का_धातु_दर्पण


डा. मुरली मनोहर जोशी केरल में पत्तनम तिट्टा जिले में आरनमुड़ा नामक स्थान पर गए तो वहां उन्होंने पाया कि वहां के परिवारों में हाथ से धातु के दर्पण बनाने की तकनीक है। इन हाथ के बने धातु दर्पणों को जब उन्होंने विज्ञान समिति के अपने मित्रों को दिखाया तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि ये दर्पण मशीन से नहीं अपितु हाथ से बने हैं और सदियों से ये दर्पण भारत से निर्यात होते रहे हैं। हम कभी अपने छात्रों को यह नहीं बताते कि हमारे यहां ऐसी तकनीक है कि अभावों में जीकर भी परम्परागत कला लुप्त न हो जाए, इस भावना के कारण आज भी वे इसे छोड़ने को तैयार नहीं। देश को ऐसे लोगों की चिंता करना चाहिए।


दिनांक - ०७.०४.२०२२

हिन्दू धर्म की प्राचीनता

 #इतना_पुराना_है_सनातन_धर्म

तभी तो कहते हैं #वसुधैव_कुटुम्बकम्


क्या हिन्दू ही था विश्व का आ{ना}दिधर्म ???

कहते हैं कि एक समय था जबकि संपूर्ण धरती पर सिर्फ हिंदू थे। प्राचीन काल में भारत की सीमा अफगानिस्तान के हिन्दूकुश पर्वत से लेकर अरुणाचल तक और कश्मीर से लेकर श्रीलंका तक। दूसरी ओर अरुणाचल से लेकर इंडोनेशिया, मलेशिया तक फैली थी। 

इस संपूर्ण क्षेत्र में 18 महाजनपदों के सम्राटों का राज था जिसके अंतर्गत सैंकड़ों जनपद और उपजनपद थे। सात द्वीपों में बंटी धरती के संपूर्ण जम्बूद्वीप पर हिन्दू धर्म ही कायम था।

सप्तद्वीपपरिक्रान्तं जम्बूदीपं निबोधत।

अग्नीध्रं ज्येष्ठदायादं कन्यापुत्रं महाबलम।।

प्रियव्रतोअभ्यषिञ्चतं जम्बूद्वीपेश्वरं नृपम्।।

तस्य पुत्रा बभूवुर्हि प्रजापतिसमौजस:।

ज्येष्ठो नाभिरिति ख्यातस्तस्य किम्पुरूषोअनुज:।।

नाभेर्हि सर्गं वक्ष्यामि हिमाह्व तन्निबोधत। (वायु 31-37, 38)

क्या प्राचीनकाल में संपूर्ण धरती पर फैला था हिन्दू धर्म?

मैक्सिको, अमेरिका,रूस, कजाकिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उजबेकिस्तान, किर्गिस्तान, तुर्की, सीरिया, इराक, स्पेन, इंडोनेशिया, चीन आदि सभी जगह पर हिन्दू धर्म से जुड़े साक्ष्य पाए गए हैं। 

विद्वानों के अनुसार अरब की यजीदी, सबाइन, सबा, कुरैश आदि कई जातियों का प्राचीन धर्म हिन्दू ही था। मैक्सिको में एक खुदाई के दौरान गणेश और लक्ष्मी की प्राचीन मूर्तियां पाई गईं थी।

 'मैक्सिको' शब्द संस्कृत के 'मक्षिका' शब्द से आता है और मैक्सिको में ऐसे हजारों प्रमाण मिलते हैं जिनसे यह सिद्ध होता है। दूसरी ओर स्पेन में हजारों वर्ष पुराना एक मंदिर है जिस पर भगवान विष्णु की प्रतिमा अंकीत है।

चीन में हिन्दू

चीन के इतिहासकारों के अनुसार चीन के समुद्र से लगे औद्योगिक शहर च्वानजो में और उसके चारों ओर का क्षे‍त्र कभी हिन्दुओं का तीर्थस्थल था। वहां 1,000 वर्ष पूर्व के निर्मित हिन्दू मंदिरों के खंडहर पाए गए हैं। इसका सबूत चीन के समुद्री संग्रहालय में रखी प्राचीन मूर्तियां हैं। मात्र 500 से 700 ईसापूर्व ही चीन को महाचीन एवं प्राग्यज्योतिष कहा जाता था, लेकिन इसके पहले आर्य काल में यह संपूर्ण क्षेत्र हरिवर्ष, भद्राश्व और किंपुरुष नाम से प्रसिद्ध था।

रूस में हिन्दू

एक हजार वर्ष पहले रूस ने ईसाई धर्म स्वीकार किया। माना जाता है कि इससे पहले यहां असंगठित रूप से हिन्दू धर्म प्रचलित था और उससे भी पहले संगठित रूप से वैदिक पद्धति के आधार पर हिन्दू धर्म प्रचलित था। रूस में आज भी पुरातत्ववेताओं को कभी-कभी खुदाई करते हुए प्राचीन रूसी देवी-देवताओं की लकड़ी या पत्थर की बनी मूर्तियां मिल जाती हैं। कुछ मूर्तियों में दुर्गा की तरह अनेक सिर और कई-कई हाथ बने होते हैं। कुछ वर्ष पूर्व ही रूस में वोल्गा प्रांत के स्ताराया मायना (Staraya Maina) गांव में विष्णु की मूर्ति मिली थी जिसे 7-10वीं ईस्वी सन् का बताया गया। यह गांव 1700 साल पहले एक प्राचीन और विशाल शहर हुआ करता था। 2007 को यह विष्णु मूर्ति पाई गई। 7 वर्षों से उत्खनन कर रहे समूह के डॉ. कोजविनका कहना है कि मूर्ति के साथ ही अब तक किए गए उत्खनन में उन्हें प्राचीन सिक्के, पदक, अंगूठियां और शस्त्र भी मिले हैं।

अमेरिका में हिन्दू

शोधकर्ता कहते हैं कि आज से 9 लाख वर्ष पूर्व एक ऐसी विलक्षण वानर जाति भारतवर्ष में विद्यमान थी, जो लुप्त हो गई। इस जाति का नाम कपि था। वानरों के साम्राज्य की राजधानी किष्किंधा थी। सुग्रीव और बालि इस सम्राज्य के राजा थे। भारत के बाहर वानर साम्राज्य अमेरिका में भी था। सेंट्रल अमेरिका के मोस्कुइटीए (Mosquitia) में शोधकर्ता चार्ल्स लिन्द्बेर्ग ने एक ऐसी जगह की खोज की है जिसका नाम उन्होंने ला स्यूदाद ब्लैंका (La Ciudad Blanca) दिया है जिसका स्पेनिश में मतलब व्हाइट सिटी (The White City) होता है, जहां के स्थानीय लोग बंदरों की मूर्तियों की पूजा करते हैं। चार्ल्स का मानना है कि यह वही खो चुकी जगह है जहां कभी हनुमान का साम्राज्य हुआ करता था। एक अमेरिकन एडवेंचरर ने लिम्बर्ग की खोज के आधार पर गुम हो चुके ‘Lost City Of Monkey God’ की तलाश में निकले। 1940 में उन्हें इसमें सफलता भी मिली पर उसके बारे में मीडिया को बताने से एक दिन पहले ही एक कार दुर्घटना में उनकी मौत हो गई और यह राज एक राज ही बनकर रह गया। अमेरिका की माया सभ्यता के अवशेष भी हिन्दू धर्म से जुड़ते हैं।

अमेरिकन महाद्वीप के बोलीविया (वर्तमान में पेरू और चिली) में हिन्दुओं ने प्राचीनकाल में अपनी बस्तियां बनाईं और कृषि का भी विकास किया। यहां के प्राचीन मंदिरों के द्वार पर विरोचन, सूर्य द्वार, चन्द्र द्वार, नाग आदि सब कुछ हिन्दू धर्म समान हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका की आधिकारिक सेना ने नेटिव अमेरिकन की एक 45वीं मिलिट्री इन्फैंट्री डिवीजन का चिह्न एक पीले रंग का स्वास्तिक था। नाजियों की घटना के बाद इसे हटाकर उन्होंने गरूड़ का चिह्न अपनाया।

इंडोनेशिया में हिन्दू

इंडोनेशिया कभी हिन्दू राष्ट्र हुआ करता था, लेकिन इस्लामिक उत्थान के बाद यह राष्ट्र आज मुस्लिम राष्ट्र है। इंडोनेशिया का एक द्वीप है बाली जहां के लोग अभी भी हिन्दू धर्म का पालन करते हैं। इंडोनेशिया के द्वीप बाली द्वीप पर हिन्दुओं के कई प्राचीन मंदिर हैं, जहां एक गुफा मंदिर भी है। इस गुफा मंदिर को गोवा गजह गुफा और एलीफेंटा की गुफा कहा जाता है। 19 अक्टूबर 1995 को इसे विश्व धरोहरों में शामिल किया गया। यह गुफा भगवान शंकर को समर्पित है। यहां 3 शिवलिंग बने हैं। देश-विदेश से पर्यटक इसे देखने आते हैं।

कंबोडिया में हिन्दू

पौराणिक काल का कंबोजदेश कल का कंपूचिया और आज का कंबोडिया। पहले हिंदू रहा और फिर बौद्ध हो गया। विश्व का सबसे बड़ा हिन्दू मंदिर परिसर तथा विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक स्मारक कंबोडिया में स्थित है। यह कंबोडिया के अंकोर में है जिसका पुराना नाम 'यशोधरपुर' था। इसका निर्माण सम्राट सूर्यवर्मन द्वितीय (1112-53ई.) के शासनकाल में हुआ था। यह विष्णु मन्दिर है जबकि इसके पूर्ववर्ती शासकों ने प्रायः शिवमंदिरों का निर्माण किया था। कंबोडिया में बड़ी संख्या में हिन्दू और बौद्ध मंदिर हैं, जो इस बात की गवाही देते हैं कि कभी यहां भी हिन्दू धर्म अपने चरम पर था। माना जाता है कि प्रथम शताब्दी में कौंडिन्य नामक एक ब्राह्मण ने हिन्द-चीन में हिन्दू राज्य की स्थापना की थी। इन्हीं के नाम पर कम्बोडिया देश हुआ। हालांकि कम्बोडिया की प्राचीन दंतकथाओं के अनुसार इस उपनिवेश की नींव 'आर्यदेश' के शिवभक्त राजा कम्बु स्वायंभुव ने डाली थी। वे इस भयानक जंगल में आए और यहां बसी हुई नाग जाति के राजा की सहायता से उन्होंने यहां एक नया राज्य बसाया, जो नागराज की अद्भुत जादूगरी से हरे-भरे, सुंदर प्रदेश में परिणत हो गया। कम्बु ने नागराज की कन्या मेरा से विवाह कर लिया और कम्बुज राजवंश की नींव डाली। कम्बोडिया में हजारों प्राचीन हिन्दू और बौद्ध मंदिर है।

वियतनाम में हिन्दू

वियतनाम का इतिहास 2,700 वर्षों से भी अधिक प्राचीन है। वियतनाम का पुराना नाम चम्पा था। चम्पा के लोग और चाम कहलाते थे। वर्तमान समय में चाम लोग वियतनाम और कम्बोडिया के सबसे बड़े अल्पसंख्यक हैं। आरम्भ में चम्पा के लोग और राजा शैव थे लेकिन कुछ सौ साल पहले इस्लाम यहां फैलना शुरु हुआ। अब अधिक चाम लोग मुसलमान हैं पर हिन्दू और बौद्ध चाम भी हैं। भारतीयों के आगमन से पूर्व यहां के निवासी दो उपशाखाओं में विभक्त थे। हालांकि संपूर्ण वियतनाम पर चीन का राजवंशों का शासन ही अधिक रहा। दूसरी शताब्दी में स्थापित चंपा भारतीय संस्कृति का प्रमुख केंद्र था। यहां के चम लोगों ने भारतीय धर्म, भाषा, सभ्यता ग्रहण की थी। 1825 में चंपा के महान हिन्दू राज्य का अंत हुआ। श्री भद्रवर्मन् जिसका नाम चीनी इतिहास में फन-हु-ता (380-413 ई.) मिलता है, चंपा के प्रसिद्ध सम्राटों में से एक थे जिन्होंने अपनी विजयों ओर सांस्कृतिक कार्यों से चंपा का गौरव बढ़ाया। किंतु उसके पुत्र गंगाराज ने सिंहासन का त्याग कर अपने जीवन के अंतिम दिन भारत में आकर गंगा के तट पर व्यतीत किए। चम्पा संस्कृति के अवशेष वियतनाम में अभी भी मिलते हैं। इनमें से कई शैव मन्दिर हैं।

मलेशिया में हिन्दू

मलेशिया वर्तमान में एक मुस्लिम राष्ट्र है लेकिन पहले ये एक हिन्दू राष्ट्र था। मलय प्रायद्वीप का दक्षिणी भाग मलेशिया देश के नाम से जाना जाता है। इसके उत्तर में थाइलैण्ड, पूर्व में चीन का सागर तथा दक्षिण और पश्चिम में मलाक्का का जलडमरूमध्य है।

उत्तर मलेशिया में बुजांग घाटी तथा मरबाक के समुद्री किनारे के पास पुराने समय के अनेक हिन्दू तथा बौद्ध मंदिर आज भी हैं। मलेशिया अंग्रेजों की गुलामी से 1957 में मुक्त हुआ। वहां पहाड़ी पर बटुकेश्वर का मंदिर है जिसे बातू गुफा मन्दिर कहते हैं। वहां पहुंचने के लिए लगभग 276 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। पहाड़ी पर कुछ प्राचीन गुफाएं भी हैं। पहाड़ी के पास स्थित एक बड़े मंदिर देखने में हनुमानजी की भी एक भीमकाय मूर्ति लगी है।

सिंगापुर में हिन्दू

सिंगापुर एक छोटा सा राष्ट्र है। यह ब्राईंदेश दक्षिण में मलय महाद्वीप के दक्षिण सिरे के पास छोटा-सा द्वीप है। इसके उत्तर में मलेशिया का किनारा, पूर्व की ओर चीन का समुद्र और दक्षिण-पश्चिम की ओर मलक्का का जलडमरू- मध्य है। 14वीं सदी तक सिंगापुर टेमासेक नाम से जाना जाता था। सुमात्रा के पॉलेमबग का राजपुत्र संगनीला ने इसे बासाया था तब इसका नाम सिंहपुर था। यहां इस बात के चिन्ह मिलते हैं कि उनका कभी हिन्दू धर्म से भी निकट का संबंध था। 1930 तक उनकी भाषा में संस्कृत भाषा के शब्दों का समावेश है। उनके नाम हिन्दुओं जैसे होते थे और कुछ नाम आज भी अपभ्रंश रूप में हिन्दू नाम ही हैं।

थाइलैंड में हिन्दू

थाइलैंड एक बौद्ध राष्ट्र है। यहां पर प्राचीनकाल में हिन्दू और बौद्ध दोनों ही धर्म और संस्कृति का एक साथ प्रचलन था लेकिन अब हिन्दू नगण्य है। खैरात के दक्षिण-पूर्व में कंबोडिया की सीमा के पास उत्तर में लगभग 40 कि.मी. की दूरी पर युरिराम प्रांत में प्रसात फ्नाम रंग नामक सुंदर मंदिर है। यह मंदिर आसपास के क्षेत्र से लगभग 340 मी. ऊंचाई पर एक सुप्त ज्वालामुखी के मुख के पास स्थित है। इस मंदिर में शंकर तथा विष्णु की अति सुंदर मूर्ति हैं।

फिलीपींस :

फिलीपींस में किसी समय भारतीय संस्कृति का पूर्ण प्रभाव था, पर 15वीं शताब्दी में मुसलमानों ने आक्रमण कर वहां आधिपत्य जमा लिया। आज भी फिलीपींस में कुछ हिन्दू रीति-रिवाज प्रचलित हैं।

जर्मन में हिन्दू

जर्मनी तो खुद को आर्य मानते ही हैं। लेकिन आश्चर्य की जर्मन में 40 हजार साल पुरानी भगवान नरसिंह की मूर्ति मिली। ये मूर्ति सन 1939 में पाई गई थी। ये मूर्ति इंसानों की तरह दिखने वाले शेर की है। जिसकी लंबाई 29.6 सेंटीमीटर (11.7 सेमी) है। कॉर्बन डेटिंग पद्धति से बताया गया है कि यह लगभग 40 हजार साल पुरानी है। ये मूर्ति होहलंस्टैंन स्टैडल, जर्मन घाटी क्षेत्र में मिली थी। द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ने के बाद गायब हो गई थी। बाद में उसे खोजा गया। ये मूर्ति खंडित अवस्था में मिली थी और 1997-1998 के दौरान कुछ लोगों ने उसे जोड़ा। सन् 2015 में उसे म्यूजियम में रखा गया ।

मंगलवार, 29 मार्च 2022

व्रत के प्रकार व जानकारी

 व्रत या उपवास विषयक आवश्यक जानकारी -


व्रत या उपवास कितने प्रकार के होते हैं.???


व्रत रखने के नियम दुनिया को सनातन धर्म की देन है। व्रत रखना एक पवित्र कर्म है और यदि इसे नियम पूर्वक नहीं किया जाता है तो न तो इसका कोई महत्व है और न ही लाभ बल्कि इससे नुकसान भी हो सकते हैं। आप व्रत बिल्कुल भी नहीं रखते हैं तो भी आपको इस कर्म का भुगतान करना ही होगा। राजा भोज के राजमार्तण्ड में 24 व्रतों का उल्लेख है।


हेमादि में 700 व्रतों के नाम बताए गए हैं। गोपीनाथ कविराज ने 1622 व्रतों का उल्लेख अपने व्रतकोश में किया है। व्रतों के प्रकार तो मूलत: तीन है:- 1. नित्य, 2. नैमित्तिक और 3. काम्य।

 

1.नित्य व्रत - उसे कहते हैं जिसमें ईश्वर भक्ति या आचरणों पर बल दिया जाता है, जैसे सत्य बोलना, पवित्र रहना, इंद्रियों का निग्रह करना, क्रोध न करना, अश्लील भाषण न करना और परनिंदा न करना, प्रतिदिन ईश्वर भक्ति का संकल्प लेना आदि नित्य व्रत हैं। इनका पालन नहीं करते से मानव दोषी माना जाता है।

 

2.नैमिक्तिक व्रत - उसे कहते हैं जिसमें किसी प्रकार के पाप हो जाने या दुखों से छुटकारा पाने का विधान होता है। अन्य किसी प्रकार के निमित्त के उपस्थित होने पर चांद्रायण प्रभृति, तिथि विशेष में जो ऐसे व्रत किए जाते हैं वे नैमिक्तिक व्रत हैं।

 

3.काम्य व्रत -  किसी कामना की पूर्ति के लिए किए जाते हैं, जैसे पुत्र प्राप्ति के लिए, धन- समृद्धि के लिए या अन्य सुखों की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले व्रत काम्य व्रत हैं।


व्रतों का वार्षिक चक्र 

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1.साप्ताहिक व्रत -  सप्ताह में एक दिन व्रत रखना चाहिए। यह सबसे उत्तम है।

 

2.पाक्षिक व्रत - 15-15 दिन के दो पक्ष होते हैं कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष। प्रत्येक पक्ष में चतुर्थी, एकादशी, त्रयोदशी, अमावस्या और पूर्णिमा के व्रत महतवपूर्ण होते हैं। उक्त में से किसी भी एक व्रत को करना चाहिए।

 

3.त्रैमासिक -  वैसे त्रैमासिक व्रतों में प्रमुख है नवरात्रि के व्रत। हिंदू माह अनुसार पौष, चैत्र, आषाढ और अश्विन मान में नवरात्रि आती है। उक्त प्रत्येक माह की प्रतिपदा यानी एकम् से नवमी तक का समय नवरात्रि का होता है। इन नौ दिनों तक व्रत और उपवास रखने से सभी तरह के क्लेश समाप्त हो जाते हैं।

 

4.छह मासिक व्रत -  चैत्र माह की नवरात्रि को बड़ी नवरात्रि और अश्विन माह की नवरात्रि को छोटी नवरात्रि कहते हैं। उक्त दोंनों के बीच छह माह का अंतर होता है। इसके अलावा

 

5.वार्षिक व्रत -  वार्षिक व्रतों में पूरे श्रावण मास में व्रत रखने का विधान है। इसके अलवा जो लोग चतुर्मास करते हैं उन्हें जिंदगी में किसी भी प्रकार का रोग और शोक नहीं होता है। इससे यह सिद्ध हुआ की व्रतों में 'श्रावण माह' महत्वपूर्ण होता है। सोमवार नहीं पूरे श्रावण माह में व्रत रखने से हर तरह के शारीरिक और मानसिक कलेश मिट जाते हैं।


उपवास के प्रकार -  1.प्रात: उपवास, 2.अद्धोपवास, 3.एकाहारोपवास, 4.रसोपवास, 5.फलोपवास, 6.दुग्धोपवास, 7.तक्रोपवास, 8.पूर्णोपवास, 9.साप्ताहिक उपवास, 10.लघु उपवास, 11.कठोर उपवास, 12.टूटे उपवास, 13.दीर्घ उपवास। बताए गए हैं, लेकिन हम यहां वर्ष में जो व्रत होते हैं उसके बारे में बता रहे हैं।

 

1.प्रात: उपवास - इस उपवास में सिर्फ सुबह का नाश्ता नहीं करना होता है और पूरे दिन और रात में सिर्फ 2 बार ही भोजन करना होता है।

 

2.अद्धोपवास - इस उपवास को शाम का उपवास भी कहा जाता है और इस उपवास में सिर्फ पूरे दिन में एक ही बार भोजन करना होता है। इस उपवास के दौरान रात का भोजन नहीं खाया जाता।

 

3.एकाहारोपवास -  एकाहारोपवास में एक समय के भोजन में सिर्फ एक ही चीज खाई जाती है, जैसे सुबह के समय अगर रोटी खाई जाए तो शाम को सिर्फ सब्जी खाई जाती है। दूसरे दिन सुबह को एक तरह का कोई फल और शाम को सिर्फ दूध आदि।

 

4.रसोपवास -  इस उपवास में अन्न तथा फल जैसे ज्यादा भारी पदार्थ नहीं खाए जाते, सिर्फ रसदार फलों के रस अथवा साग-सब्जियों के जूस पर ही रहा जाता है। दूध पीना भी मना होता है, क्योंकि दूध की गणना भी ठोस पदार्थों में की जा सकती है।

 

5.फलोपवास - कुछ दिनों तक सिर्फ रसदार फलों या भाजी आदि पर रहना फलोपवास कहलाता है। अगर फल बिलकुल ही अनुकूल न पड़ते हो तो सिर्फ पकी हुई साग-सब्जियां खानी चाहिए।

 

6.दुग्धोपवास -  दुग्धोपवास को 'दुग्ध कल्प' के नाम से भी जाना जाता है। इस उपवास में सिर्फ कुछ दिनों तक दिन में 4-5 बार सिर्फ दूध ही पीना होता है।

 

7.तक्रोपवास -  तक्रोपवास को 'मठाकल्प' भी कहा जाता है। इस उपवास में जो मठा लिया जाए, उसमें घी कम होना चाहिए और वो खट्टा भी कम ही होना चाहिए। इस उपवास को कम से कम 2 महीने तक आराम से किया जा सकता है।

 

8.पूर्णोपवास - बिलकुल साफ-सुथरे ताजे पानी के अलावा किसी और चीज को बिलकुल न खाना पूर्णोपवास कहलाता है। इस उपवास में उपवास से संबंधित बहुत सारे नियमों का पालन करना होता है।

 

9. साप्ताहिक उपवास - पूरे सप्ताह में सिर्फ एक पूर्णोपवास नियम से करना साप्ताहिक उपवास कहलाता है।

 

10. लघु उपवास - 3 से लेकर 7 दिनों तक के पूर्णोपवास को लघु उपवास कहते हैं।

 

11. कठोर उपवास -  जिन लोगों को बहुत भयानक रोग होते हैं यह उपवास उनके लिए बहुत लाभकारी होता है। इस उपवास में पूर्णोपवास के सारे नियमों को सख्ती से निभाना पड़ता है।

 

12. टूटे उपवास -  इस उपवास में 2 से 7 दिनों तक पूर्णोपवास करने के बाद कुछ दिनों तक हल्के प्राकृतिक भोजन पर रहकर दोबारा उतने ही दिनों का उपवास करना होता है। उपवास रखने का और हल्का भोजन करने का यह क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक कि इस उपवास को करने का मकसद पूरा न हो जाए।

 

13. दीर्घ उपवास -  दीर्घ उपवास में पूर्णोपवास बहुत दिनों तक करना होता है जिसके लिए कोई निश्चित समय पहले से ही निर्धारित नहीं होता। इसमें 21 से लेकर 50-60 दिन भी लग सकते हैं। अक्सर यह उपवास तभी तोड़ा जाता है, जब स्वाभाविक भूख लगने लगती है अथवा शरीर के सारे जहरीले पदार्थ पचने के बाद जब शरीर के जरूरी अवयवों के पचने की नौबत आ जाने की संभावना हो जाती है।

।। आपका आज का दिन शुभ मंगलमय हो ।।

               🙏  धन्यवाद  🙏,

कृष्ण बलराम का बैकुंठपुर में प्रस्थान

 *महाभारत:* 

*अंत समय में बलराम के मुख से निकले थे शेषनाग!!!!!!*

जब गांधारी के श्राप को सत्य करने का समय आया तो श्रीकृष्ण ने अंधक व वृष्णि वंशियों को प्रभास क्षेत्र में आकर रहने के लिए कहा।

 युद्ध के उपरांत 15 सालों तक हस्तिनापुर में रहने के बाद धृतराष्ट्र व गांधारी तप करने वन चले गए। उनके साथ कुंती व विदुर भी थे। 1 साल बाद युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ उनसे मिलने पहुंचे।

 इस दौरान महर्षि वेदव्यास ने अपने तपोबल से युद्ध में मारे गए सभी योद्धाओं को एक रात के लिए जीवित कर दिया। कुछ दिनों बाद युधिष्ठिर पुन: हस्तिनापुर लौट आए। इस घटना के 2 साल बाद जंगल में आग लगने के कारण धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती की मृत्यु हो गई।

जब गांधारी के श्राप को सत्य करने का समय आया तो श्रीकृष्ण ने अंधक व वृष्णिवंशियों को प्रभास क्षेत्र में आकर रहने के लिए कहा। एक दिन किसी बात पर क्रोधित होकर सात्यकि ने कृतवर्मा का वध कर दिया। देखते ही देखते सभी लोग एक-दूसरे के प्राण लेने लगे। श्रीकृष्ण ने भी क्रोधित होकर सभी का वध कर दिया। इसके बाद बलराम व श्रीकृष्ण ने भी अपने देह का त्याग कर दिया। 

जब अर्जुन को यह बात पता चली तो वह द्वारिका आए और यदुवंश की स्त्रियों व द्ववारिका वासियों को अपने साथ लेकर हस्तिनापुर ले जाने लगे। अर्जुन व द्वारिकावासी जैसे नगर से निकले, उसी समय द्वारिका नगरी समुद्र में डूब गई। 

*ऋषियों ने दिया था सांब को श्राप -*

महाभारत युद्ध के बाद जब छत्तीसवां वर्ष आरंभ हुआ तो तरह-तरह के अपशकुन होने लगे। एक दिन महर्षि विश्वामित्र, कण्व, देवर्षि नारद आदि द्वारका गए। वहां यादव कुल के कुछ नवयुवकों ने उनके साथ परिहास (मजाक) करने का सोचा। वे श्रीकृष्ण के पुत्र सांब को स्त्री वेष में ऋषियों के पास ले गए और कहा कि ये स्त्री गर्भवती है। इसके गर्भ से क्या उत्पन्न होगा?      

ऋषियों ने जब देखा कि ये युवक हमारा अपमान कर रहे हैं तो क्रोधित होकर उन्होंने श्राप दिया कि- श्रीकृष्ण का यह पुत्र वृष्णि और अंधकवंशी पुरुषों का नाश करने के लिए एक लोहे का मूसल उत्पन्न करेगा, जिसके द्वारा तुम जैसे क्रूर और क्रोधी लोग अपने समस्त कुल का संहार करोगे। उस मूसल के प्रभाव से केवल श्रीकृष्ण व बलराम ही बच पाएंगे। श्रीकृष्ण को जब यह बात पता चली तो उन्होंने कहा कि ये बात अवश्य सत्य होगी।

*द्वारका में होने लगे थे भयंकर अपशकुन -*

मुनियों के श्राप के प्रभाव से दूसरे दिन ही सांब ने मूसल उत्पन्न किया। जब यह बात राजा उग्रसेन को पता चली तो उन्होंने उस मूसल को चुरा कर समुद्र में डलवा दिया। इसके बाद राजा उग्रसेन व श्रीकृष्ण ने नगर में घोषणा करवा दी कि आज से कोई भी वृष्णि व अंधकवंशी अपने घर में मदिरा तैयार नहीं करेगा। जो भी व्यक्ति छिपकर मदिरा तैयार करेगा, उसे मृत्युदंड दिया जाएगा। घोषणा सुनकर द्वारकावासियों ने मदिरा नहीं बनाने का निश्चय किया।   

इसके बाद द्वारका में भयंकर अपशकुन होने लगे। प्रतिदिन आंधी चलने लगी। चूहे इतने बढ़ गए कि मार्गों पर मनुष्यों से ज्यादा दिखाई देने लगे। वे रात में सोए हुए मनुष्यों के बाल और नाखून कुतरकर खा जाया करते थे। सारस उल्लुओं की और बकरे गीदड़ों की आवाज निकालने लगे। गायों के पेट से गधे, कुत्तियों से बिलाव और नेवलियों के गर्भ से चूहे पैदा होने लगे। उस समय यदुवंशियों को पाप करते शर्म नहीं आती थी।

-   जब श्रीकृष्ण ने नगर में होते इन अपशकुनों को देखा तो उन्होंने सोचा कि कौरवों की माता गांधारी का श्राप सत्य होने का समय आ गया है। इन अपशकुनों को देखकर तथा पक्ष के तेरहवें दिन अमावस्या का संयोग जानकर श्रीकृष्ण काल की अवस्था पर विचार करने लगे। उन्होंने देखा कि इस समय वैसा ही योग बन रहा है जैसा महाभारत के युद्ध के समय बना था। गांधारी के श्राप को सत्य करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण ने यदुवंशियों को तीर्थयात्रा करने की आज्ञा दी। श्रीकृष्ण की आज्ञा से सभी राजवंशी समुद्र के तट पर प्रभास तीर्थ आकर निवास करने लगे। 

प्रभास तीर्थ में रहते हुए एक दिन जब अंधक व वृष्णि वंशी आपस में बात कर रहे थे। तभी सात्यकि ने आवेश में आकर कृतवर्मा का उपहास और अनादर कर दिया। कृतवर्मा ने भी कुछ ऐसे शब्द कहे कि सात्यकि को क्रोध आ गया और उसने कृतवर्मा का वध कर दिया। यह देख अंधकवंशियों ने सात्यकि को घेर लिया और हमला कर दिया।

 सात्यकि को अकेला देख श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न उसे बचाने दौड़े। सात्यकि और प्रद्युम्न अकेले ही अंधकवंशियों से भिड़ गए। परंतु संख्या में अधिक होने के कारण वे अंधकवंशियों को पराजित नहीं कर पाए और अंत में उनके हाथों मारे गए। 

*यदुवंशियों के नाश के बाद अर्जुन को बुलवाया था श्रीकृष्ण ने 

अपने पुत्र और सात्यकि की मृत्यु से क्रोधित होकर श्रीकृष्ण ने एक मुट्ठी एरका घास उखाड़ ली। हाथ में आते ही वह घास वज्र के समान भयंकर लोहे का मूसल बन गई। उस मूसल से श्रीकृष्ण सभी का वध करने लगे। जो कोई भी वह घास उखाड़ता वह भयंकर मूसल में बदल जाती (ऐसा ऋषियों के श्राप के कारण हुआ था)। 

उन मूसलों के एक ही प्रहार से प्राण निकल जाते थे। उस समय काल के प्रभाव से अंधक, भोज, शिनि और वृष्णि वंश के वीर मूसलों से एक-दूसरे का वध करने लगे। यदुवंशी भी आपस में लड़ते हुए मरने लगे।    श्रीकृष्ण के देखते ही देखते सांब, चारुदेष्ण, अनिरुद्ध और गद की मृत्यु हो गई। 

फिर तो श्रीकृष्ण और भी क्रोधित हो गए और उन्होंने शेष बचे सभी वीरों का संहार कर डाला। अंत में केवल दारुक (श्रीकृष्ण के सारथी) ही शेष बचे थे। श्रीकृष्ण ने दारुक से कहा कि तुम तुरंत हस्तिनापुर जाओ और अर्जुन को पूरी घटना बता कर द्वारका ले आओ। दारुक ने ऐसा ही किया। इसके बाद श्रीकृष्ण बलराम को उसी स्थान पर रहने का कहकर द्वारका लौट आए।

*बलरामजी के स्वधाम गमन के बाद ये किया श्रीकृष्ण ने ????* - द्वारका आकर श्रीकृष्ण ने पूरी घटना अपने पिता वसुदेवजी को बता दी। यदुवंशियों के संहार की बात जान कर उन्हें भी बहुत दुख हुआ। श्रीकृष्ण ने वसुदेवजी से कहा कि आप अर्जुन के आने तक स्त्रियों की रक्षा करें। इस समय बलरामजी वन में मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं, मैं उनसे मिलने जा रहा हूं। जब श्रीकृष्ण ने नगर में स्त्रियों का विलाप सुना तो उन्हें सांत्वना देते हुए कहा कि शीघ्र ही अर्जुन द्वारका आने वाले हैं। वे ही तुम्हारी रक्षा करेंगे। ये कहकर श्रीकृष्ण बलराम से मिलने चल पड़े। 

वन में जाकर श्रीकृष्ण ने देखा कि बलरामजी समाधि में लीन हैं। देखते ही देखते उनके मुख से सफेद रंग का बहुत बड़ा सांप निकला और समुद्र की ओर चला गया। उस सांप के हजारों मस्तक थे।

 समुद्र ने स्वयं प्रकट होकर भगवान शेषनाग का स्वागत किया। बलरामजी द्वारा देह त्यागने के बाद श्रीकृष्ण उस सूने वन में विचार करते हुए घूमने लगे।

 घूमते-घूमते वे एक स्थान पर बैठ गए और गांधारी द्वारा दिए गए श्राप के बारे में विचार करने लगे। देह त्यागने की इच्छा से श्रीकृष्ण ने अपनी इंद्रियों का संयमित किया और महायोग (समाधि) की अवस्था में पृथ्वी पर लेट गए।

*ऐसे त्यागी श्रीकृष्ण ने देह!!!!!!*

  - जिस समय भगवान श्रीकृष्ण समाधि में लीन थे, उसी समय जरा नाम का एक शिकारी हिरणों का शिकार करने के उद्देश्य से वहां आ गया। उसने हिरण समझ कर दूर से ही श्रीकृष्ण पर बाण चला दिया। बाण चलाने के बाद जब वह अपना शिकार पकडऩे के लिए आगे बढ़ा तो योग में स्थित भगवान श्रीकृष्ण को देख कर उसे अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ। तब श्रीकृष्ण ने उसे आश्वासन दिया और अपने परमधाम चले गए। अंतरिक्ष में पहुंचने पर इंद्र, अश्विनीकुमार, रुद्र, आदित्य, वसु, मुनि आदि सभी ने भगवान का स्वागत किया।

इधर दारुक ने हस्तिनापुर जाकर यदुवंशियों के संहार की पूरी घटना पांडवों को बता दी। यह सुनकर पांडवों को बहुत शोक हुआ। अर्जुन तुरंत ही अपने मामा वसुदेव से मिलने के लिए द्वारका चल दिए। अर्जुन जब द्वारका पहुंचे तो वहां का दृश्य देखकर उन्हें बहुत शोक हुआ। श्रीकृष्ण की रानियां उन्हें देखकर रोने लगी। उन्हें रोता देखकर अर्जुन भी रोने लगे और श्रीकृष्ण को याद करने लगे। इसके बाद अर्जुन वसुदेवजी से मिले। अर्जुन को देखकर वसुदेवजी बिलख-बिलख रोने लगे। वसुदेवजी ने अर्जुन को श्रीकृष्ण का संदेश सुनाते हुए कहा कि द्वारका शीघ्र ही समुद्र में डूबने वाली है अत: तुम सभी नगरवासियों को अपने साथ ले जाओ।

  - वसुदेवजी की बात सुनकर अर्जुन ने दारुक से सभी मंत्रियों को बुलाने के लिए कहा। मंत्रियों के आते ही अर्जुन ने कहा कि मैं सभी नगरवासियों को यहां से इंद्रप्रस्थ ले जाऊंगा, क्योंकि शीघ्र ही इस नगर को समुद्र डूबा देगा। अर्जुन ने मंत्रियों से कहा कि आज से सातवे दिन सभी लोग इंद्रप्रस्थ के लिए प्रस्थान करेंगे इसलिए आप शीघ्र ही इसके लिए तैयारियां शुरू कर दें। सभी मंत्री तुरंत अर्जुन की आज्ञा के पालन में जुट गए। अर्जुन ने वह रात श्रीकृष्ण के महल में ही बिताई। 

अगली सुबह श्रीकृष्ण के पिता वसुदेवजी ने प्राण त्याग दिए। अर्जुन ने विधि-विधान से उनका अंतिम संस्कार किया। वसुदेवजी की पत्नी देवकी, भद्रा, रोहिणी व मदिरा भी चिता पर बैठकर सती हो गईं। इसके बाद अर्जुन ने प्रभास तीर्थ में मारे गए समस्त यदुवंशियों का भी अंतिम संस्कार किया। सातवे दिन अर्जुन श्रीकृष्ण के परिजनों तथा सभी नगरवासियों को साथ लेकर इंद्रप्रस्थ की ओर चल दिए। उन सभी के जाते ही द्वारका नगरी समुद्र में डूब गई। ये दृश्य देखकर सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ।