सोमवार, 25 अप्रैल 2022

हृदय रेखा और ईष्ट

 हाथ की रेखाएं बता देती हैं कि किस देवी-देवता की पूजा आपके लिए ज्यादा लाभकारी होगी ।

- यदि आपेक हाथ की हृदय रेखा पर त्रिशूल बनता हो, उंगलियां चाहे टेढ़ी-मेढ़ी हों तो ऐसे लोंगो के ईष्ट देव भगवान शिव माने जाते है और उन्हें जीवन में आने वाले कष्टों से मुक्ति के लिए शिव की आराधना करना चाहिए, एवं इस मंत्र- ऊँ नमः शिवाय का जप 108 बार करना चाहिए ।


- यदि हृदयरेखा के अंत पर एक शाखा गुरु पर्वत पर जाती हो तो इन्हें रांम भक्त श्री हनुमान जी का पूजन करना चाहिए, जो जीवन में आने वाली विपदाओं को दूर करते है, साथ ही इस मंत्र का 108 बार जप- ऊँ नमो हनुमंता एवं हनुमान चालीसा का पाठ करने से सुख शांति मिलती है ।


- यदि भाग्य रेखा खंडित हो व इसमें दोष हो तो ऐसे लोगों को लक्ष्मी माता का ध्यान या लक्ष्मी मंत्र का जप करना चाहिए । मात लक्ष्मी को ईष्ट मानकर इस मंत्र - ऊँ श्रीं, ह्रीं, श्रीं कमले कमलालये प्रसीद-प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं सिद्ध लक्ष्म्यै नमः । का जप करना चाहिए ।


- यदि हाथ में सूर्य ग्रह दबा हुआ हो, व्यक्ति को शिक्षा में पूर्ण सफलता न मिल पा रही हो, मस्तिष्क रेखा खराब हो, तो सूर्य ईष्ट मानकर सूर्य मंत्र का 108 बार जप करने के बाद सूर्य को अर्घ्य देना चाहिए । सूर्य मंत्र- ऊँ ह्रां, ह्रीं, ह्रौं सः सूर्याय नमः ।


5- यदि जीवन रेखा व भाग्य रेखा को कई मोटी रेखाएं काटें तो इनके जीवन में प्रत्येक व्यवसाय में रुकावट आती है तो इस रुकावट को दूर करने के लिए इस मंत्र - ऊँ श्रीं, ह्रीं, श्रीं कमले कमलालये प्रसीद-प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं सिद्ध लक्ष्म्यै नमः । का जप करना चाहिए ।


6- यदि सभी ग्रह सामान्य हों, जीवन रेखा टूटी हो तो ये जीवन में दुर्घटनाओं का ***** है । ऐसे लोगों को भगवान शिव को ईष्ट मानकर शिव स्तोत्र या ऊँ नमः शिवाय का जप नियमित करना चाहिए ।


7- यदि हृदय रेखा खंडित हो और साथ में हृदय रेखा से अनेक शाखाएं मस्तिष्क रेखा पर आ रही हों तो इन्हें मां दुर्गा का पूजन तथा दुर्गा सप्तशती का नित्य पाठ करना चाहिए । ऐसा करने से मन का विचलन शांत होता है तथा इससे उसकी निर्णय क्षमता में वृद्धि होने लगती है ।


8- यदि हृदय रेखा व मस्तिष्क रेखा एक हो या मस्तिष्क रेखा मंगल क्षेत्र तक जाती हो तो इन्हें भगवान कृष्ण का ध्यान व पूजा करनी चाहिए, साथ ही इस मंत्र- ऊँ नमोः भगवते वासुदेवाय नमः का जप 108 बार करना चाहिए । इससे व्यक्ति को संतान सुख व वंश की प्राप्ति होती है ।


- यदि हाथ में भाग्य रेखा लंबी हो, जीवन रेखा गोल हो, हृदय रेखा सुंदर हो तो इन्हें मर्यादा पुरुषोम श्रीराम को ईष्ट मानकर पूजन करना चाहिए । ऐसे लोग राम नाम का 1100 बार जप करने से जीवन सुखमय बन जाता है ।


यदि हाथ में शनि की अंगुली सीधी हो, शनि ग्रह मध्य हो तो ऐसे व्यक्तियों को शनि देव की स्तुति अवश्य करनी चाहिए । नित्य शनि मंत्र का 108 बार जप करने से मनुष्य के जीवन में सुख शांति व समृद्धि आती है । शनि मंत्र - ऊँ प्रां प्रीं प्रौं सह शनिश्चराय नमः ।

गुरुवार, 7 अप्रैल 2022

श्रीराम जन्म रहस्य

 II जय श्रीराघव II


“ श्रीरामजन्म रहस्य “

पोस्ट संख्या – ४/४ (अन्तिम)


कुछ महानुभवोंका मत है कि सांगोपांग शेषशायी भगवान् का आविर्भाव चार रूपोंमें होता है । साक्षात् भगवान् श्रीरामरूपमें और शेष, शंख, चक्र ये लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न रूपमें प्रकट होते हैं । आधे अंशमें राम और आधेमें लक्ष्मण प्रभृति तीनों भ्राता । दूसरे शब्दोंमें यह भी कहा जा सकता है कि सप्रपञ्च ब्रह्मका भरतादि तीन रूपमें प्राकट्य हुआ और निष्प्रपञ्च ब्रह्मका श्रीरामरूपमें आविर्भाव हुआ ।


प्रणवके ‘अ’ ‘उ’ ‘म्’ इन तीन मात्राओंके वाच्य विराट्, हिरण्यगर्भ, अव्याकृतका शत्रुघ्न, लक्ष्मण तथा भरतरूपमें आयर अर्द्धमात्राका अर्थ तुरीयपाद या वाच्यवाचकातीत, सर्वाधिष्ठान परम तत्त्वका श्रीरामरूपमें प्रादुर्भाव हुआ । निष्प्रपञ्च अर्द्धमात्राका अर्थ तुरीय तत्त्व ही चरुके अर्द्ध अंशसे और शेष तीन मात्राओंके अर्थ सप्रपञ्च तीनों तत्त्व चरुके अर्द्ध अंशसे व्यक्त हुए । प्रणवकी जैसे साढ़े तीन मात्रा मानी गयी है, वैसे ही सोलह मात्र भी मानी जाती है । ‘अकारो वै सर्वा वाक् ।‘ समस्त वाक्योंका अन्तर्भाव अकारमें ही होता । अतः प्रणवमें ही सोलह मात्राकी कल्पना करके उसके सोलह वाच्य स्थिर किये गये हैं । जाग्रत-अवस्थाका अभिमानी व्यष्टि विश्व और समष्टि स्थूल प्रपञ्चका अभिमानी विराट् होता है । सूक्ष्म प्रपञ्च और स्वप्नावस्थाका अभिमानी तैजस और हिरण्यगर्भ एवं कारण प्रपञ्च, सुषुप्ति-अवस्थाका अभिमानी प्राज्ञ और अव्याकृत होता है ।इन सभी कल्पनाओंका अधिष्ठान शुद्ध ब्रह्म तुरीय तत्त्व होता है ।


इस पक्षमें ‘तुरीय विराट्’ शत्रुघ्न, ‘तुरीय हिरण्यगर्भ’ लक्ष्मण, ‘तुरीय अव्याकृत’ भरत और ‘तुरीय तुरीय’ श्रीमद्राघवेन्द्र रामचन्द्ररूपमें प्रकट होते हैं, और उनकी माधुर्याधिष्ठात्री महाशक्ति, श्रीजनक-नन्दिनीरूपमें प्रकट होती हैं । सर्वथा पूर्णतम पुरुषोत्तम वेदान्तवेद्य भगवान् का ही श्रीरामचन्द्र-रूपमें प्राकट्य होता है तभी तो उनके दर्शन, स्पर्शन, श्रवण, अनुगमन मात्रसे प्राणियोंकी परमगति हो जाती है –

स यैः स्पृष्टोऽभिदृष्टो वा संविष्टोऽनुगतोऽपि वा ।

कोसलास्ते ययुः स्थानं यत्र गच्छन्ति योगिनः ।।

जो परम तत्त्व विषय, करण, देवताओं तथा जीवको भी सत्ता-स्फूर्ति प्रदान करनेवाला है, वही श्रीरामचन्द्ररूपमें प्रकट होता है ।


बिषय करन सुर जीव समेता । सकल एक तें एक सचेता ।।

सब कर परम प्रकासक जोई । राम अनादि अवधपति सोई ।।

समष्टि-व्यष्टि, स्थूल-सूक्ष्मकारण समस्त प्रपञ्चमय क्षेत्रके कूटस्थ निर्विकार भासक ही राम हैं – ‘ जगत प्रकास्य प्रकासक रामू ।‘

जिनके अनुग्रहसे एवं जिनमें सब रमण करते हैं और जो सर्वान्तरात्मा रूपसे सबमें रमण करते हैं वे ही मर्यादापुरुषोत्तम रामचन्द्र हैं । जिन आनन्दसिन्धु सुखराशिके एक तुषारसे अनन्त ब्रह्माण्ड आनन्दित होता है वे ही जीवोंके जीवन, प्राणोंके प्राण, आनन्दके भी आनन्द भगवान् ‘राम’ हैं ।

(गोताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘कल्याण – श्रीरामभक्ति अंक’से)

******* सियावर रामचन्द्रकी जय *******

धातु विज्ञान

 #धातु_विज्ञान (#Metallurgy ) - 

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धातु विज्ञान का भारत में प्राचीन काल से व्यावहारिक जीवन में उपयोग होता रहा है। यजुर्वेद के एक मंत्र में निम्न उल्लेख आया है-


अश्मा च मे मृत्तिका च मे गिरयश्च में पर्वताश्च में सिकताश्च में वनस्पतयश्च मे हिरण्यं च मेऽयश्च में श्यामं च मे लोहं च मे सीस च में त्रपु च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्‌ (कृ.यजु. ४-७-५)


मेरे पत्थर, मिट्टी, पर्वत, गिरि, बालू, वनस्पति, सुवर्ण, लोहा लाल लोहा, ताम्र, सीसा और टीन यज्ञ से बढ़ें।


रामायण, महाभारत, पुराणों, श्रुति ग्रंथों में भी सोना (सुवर्ण, हिरण्य), लोहा (स्याम), टिन (त्रपु), चांदी (रजत), सीसा, तांबा, (ताम्र), कांसा आदि का उल्लेख आता है। 


धातु विज्ञान से सम्बंधित व्यवसाय करने वाले कुछ लोगों के नाम-


कर्मरा- कच्ची धातु गलाने वाले

धमत्र - भट्टी में अग्नि तीव्र करने वाले

हिरण्यक - स्वर्ण गलाने वाले

खनक - खुदाई कर धातु निकालने वाले। 


चरक, सुश्रुत, नागार्जुन ने स्वर्ण, रजत, ताम्र, लौह, अभ्रक, पारा आदि से औषधियां बनाने की विधि का विस्तार से अपने ग्रंथों में वर्णन किया है। केवल प्राचीन ग्रंथों में ही विकसित धातु विज्ञान का उल्लेख नहीं मिलता, अपितु उसके अनेक प्रमाण आज भी उपलब्ध होते हैं। कुछ उदाहरण-


(१) जस्ता- 

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 धातु विज्ञान के क्षेत्र में जस्ते की खोज एक आश्चर्य है। आसवन प्रक्रिया के द्वारा कच्चे जस्ते से शुद्ध जस्ता निकालने की प्रक्रिया निश्चय ही भारतीयों के लिए गर्व का विषय है। राजस्थान के ‘जवर‘ क्षेत्र में खुदाई के दौरान ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में इसके निर्माण की प्रक्रिया के अवशेष मिले हैं। मात्र दस फीसदी जस्ते से पीतल सोने की तरह चमकने लगता है। जवर क्षेत्र की खुदाई में जो पीतल की वस्तुएं प्राप्त हुई हैं उनका रासायनिक विश्लेषण करने पर पाया गया कि इनमें जस्ते की मात्रा ३४ प्रतिशत से अधिक है, जबकि आज की ज्ञात विधियों के अनुसार सामान्य स्थिति में पीतल में २८ प्रतिशत से अधिक जस्ते का सम्मिश्रण नहीं हो पाता है।


जस्ते को पिघलाना भी एक जटिल प्रक्रिया है, क्योंकि सामान्य दबाव में यह ९१३०से. तापक्रम पर उबलने लगता है। जस्ते के आक्साइड या कच्चे जस्ते से शुद्ध जस्ता प्राप्त करने के लिए उसे १२०००से. तापक्रम आवश्यक है, लेकिन इतने तापक्रम पर जस्ता भाप बन जाता है। अत: उस समय पहले जस्ते का आक्साइट बनाने के लिए कच्चे जस्ते को भूंजते थे, फिर भुंजे जस्ते को कोयला व अपेक्षित प्रमाण में नमक मिलाकर मिट्टी के मटकों में तपाया जाता था तथा ताप १२०००से पर बनाए रखा जाता था। इस पर वह भाप बन जाता था, परन्तु भारतीयों ने उस समय विपरीत आसवनी नामक प्रक्रिया विकसित की थी। इसके प्रमाण जवर की खुदाई में मिले हैं। इसमें कार्बन मोनोआक्साइड के वातावरण में जस्ते के आक्साइड भरे पात्रों को उल्टे रखकर गर्म किया जाता था। जैसे ही जस्ता भाप बनता, ठीक नीचे रखे ठंडे स्थान पर पहुंच कर धातु रूप में आ जाता था और इस प्रकार शुद्ध जस्ते की प्राप्ति हो जाती थी। जस्ते को प्राप्त करने की यह विद्या भारत में ईसा के जन्म से पूर्व से प्रचलित रही।


यूरोप के लोग १७३५ तक यह मानते थे कि जस्ता एक तत्व के रूप में अलग से प्राप्त नहीं किया जा सकता। यूरोप में सर्वप्रथम विलियम चैम्पियन ने जस्ता प्राप्त करने की विधि व्रिस्टल विधि के नाम से पेटेंट करवाई और यह नकल उसने भारत से की, क्योंकि तेरहवीं सदी के ग्रंथ रसरत्नसमुच्चय में जस्ता बनाने की जो विधि दी है, व्रिस्टल विधि उसी प्रकार की है। 


(२) लोहा- 

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 इतिहास में भारतीय इस्पात की श्रेष्ठता के अनेक उल्लेख मिलते हैं। अरब और फारस में लोग भारतीय इस्पात की तलवार के लिए लालायित रहते थे। अंग्रेजों ने सर्वाधिक कार्बन युक्त इस्पात को बुट्ज नाम दिया। प्रसिद्ध धातु वैज्ञानिक तथा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रो. अनंतरमन ने इस्पात बनाने की सम्पूर्ण विधि बताई है। कच्चे लोहे, लकड़ी तथा कार्बन को मिट्टी की प्यालियों में १५३५०से. ताप पर गर्म कर धीरे-धीरे २४ घण्टे में ठण्डा करने पर उच्च कार्बन युक्त इस्पात प्राप्त होता है। इस इस्पात से बनी तलवार इतनी तेज तथा मजबूत होती है कि रेशम को भी सफाई से काट देती है।


१८वीं सदी में यूरोपीय धातु विज्ञानियों ने भारतीय इस्पात बनाने का प्रयत्न किया, परन्तु असफल रहे। माइकेल फैराडे ने भी प्रयत्न किया, पर असफल रहा। कुछ ने बनाया तो उसमें वह गुणवत्ता नहीं थी।


श्री धर्मपाल जी ने अपनी पुस्तक लिखे थे सितम्बर, १७१५ को डा. बेंजामिन हायन ने जो रपट ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भेजी, उसमें वह उल्लेख करता है कि रामनाथ पेठ (तत्कालीन मद्रास प्रान्त में बसा) एक सुन्दर गांव है। यहां आस-पास खदानें हैं तथा ४० इस्पात की भट्टियां हैं। इन भट्टियों में इस्पात निर्माण के बाद उसकी कीमत २ रु. मन पड़ती है। अत: कम्पनी को इस दिशा में सोचना चाहिए।


दूसरी रपट मेजर जेम्स फ्र्ैंकलिन की है जिसमें वह सेंट्रल इंडिया में इस्पात निर्माण के बारे में लिखता है। इसमें वह जबलपुर, पन्ना, सागर आदि स्थानों की लौह खदानों का वर्णन करता है तथा इस्पात बनाने की प्रक्रिया के बारे में वह कहता है चारकोल सारे हिन्दुस्तान में लोहा बनाने के काम में प्रयुक्त होता है। जिस भट्टी का उल्लेख करता है, उसका निर्माण किया गया है। उसमें सभी भाग बराबर औसत १९-२०  -लम्बाई मापने की प्राचीन इकाई, लगभग १८ इंच इसका माप था। और १६ छोटी  के थे। वह इस फर्नेस को बनाने की विधि का वर्णन करता है। फर्नेस बनाने पर उसके आकार को वह नापता है तो पूरी भट्टी में वह पाता है कि एक ही प्रकार की नाप है। लम्बाई सवा ४ भाग तो चौड़ाई ३ भाग होगी और मोटाई डेढ़ भाग। आगे वह लिखता है (१) गुडारिया (२) पचर (३) गरेरी तथा (४) अकरिया-ये उपांग इसमें लगाए जाते हैं। बाद में जब भट्टी पूरी तरह सूख जाती है तो उसे काम में लाया जाता है। भट्टी के बाद धोंकनी उसका मुंह बनाने की विधि, उसके बाद भट्टी से जो कच्चा लोहा निकलेगा उसे शुद्ध करने की रिफायनरी का वर्णन करता है। फिर उससे इस्पात बनाने की प्रक्रिया तथा मात्रा का निरीक्षण उसने ३० अप्रैल, १८२७ से लेकर ६ जून, १८२७ तक किया। इस बीच ४ फरनेस से २२३५ मन इस्पात बना और इसकी विशेषता गुणवत्ता तथा विभिन्न तापमान एवं परिस्थिति में श्रेष्ठता की वह मुक्तकंठ से प्रशंसा करता है। उस समय एक मन की कीमत पौने बारह आना थी। सवा ३१ मन उ १ इंग्लिश टन।


मेजर जेम्स फ्र्ैंकलिन सागरमिंट के कप्तान प्रेसग्रेव का हवाला देते हुए कहता है कि भारत का सरिया (लोहा) श्रेष्ठ स्तर का है। उस स्वीडन के लोहे को भी वह मात देता है जो यूरोप में उस समय सर्वश्रेष्ठ माना जाता था।


तीसरी रपट कैप्टन डे. कैम्पबेल की है जो १८४२ की है। इसमें दक्षिण भारत में लोहे के निर्माण का वर्णन है। ये सब रपट कहती हैं कि उस समय देश में हजारों छोटी-छोटी इस्पात निर्माण की भट्टियां थीं। एक भट्टी में ९ लोगों को रोजगार मिलता था तथा उत्कृष्ट प्रकार का सस्ता लोहा बनता था। वैसा दुनिया में अन्य किसी देश में संभव नहीं था। कैम्पबेल ने रेलगाड़ी में लगाने के लिए बार आयरन की खोज करते समय बार-बार कहा, यहां का (भारत का) बार आरयन उत्कृष्ट है, सस्ता है। इंग्लैण्ड का बढ़िया लोहा भी भारत के घटिया लोहे का मुकाबला नहीं कर सकता। उस समय ९० हजार लोग इन भट्टियों में काम करते थे। अंग्रेजों ने १८७४ में बंगाल आयरन कंपनी की स्थापना कर बड़े पैमाने पर उत्पादन चालू किया। परिणामस्वरूप धीरे-धीरे गांव-गांव में बनने वाले इस्पात की खपत कम होती गई और उन्नीसवीं सदी के अन्त तक स्वदेशी इस्पात बनना लगभग बंद हो गया। अंग्रेजों ने बड़े कारखाने लगाकर स्वदेशी प्रौद्योगिकी की कमर तोड़ दी। इसका दु:खद पक्ष यह है कि भारतीय धातु प्रौद्योगिकी लगभग लुप्त हो गई। आज झारखंड के कुछ वनवासी परिवारों में इस तकनीक के नमूने मात्र रह गए हैं। 


#दिल्ली_स्थित_लौह_स्तंभ


नई दिल्ली में कुतुबमीनार के पास लौह स्तंभ विश्व के धातु विज्ञानियों के लिए आकर्षण का केन्द्र रहा है। लगभग १६००० से अधिक वर्षों से यह खुले आसमान के नीचे सदियों से सभी मौसमों में अविचल खड़ा है। इतने वर्षों में आज तक उसमें जंग नहीं लगी, यह बात दुनिया के लिए आश्चर्य का विषय है। जहां तक इस स्तंभ के इतिहास का प्रश्न है, यह चौथी सदी में बना था। इस स्तम्भ पर संस्कृत में जो खुदा हुआ है, उसके अनुसार इसे ध्वज स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था। चन्द्रराज द्वारा मथुरा में विष्णु पहाड़ी पर निर्मित भगवान विष्णु के मंदिर के सामने इसे ध्वज स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था। इस पर गरुड़ स्थापित करने हेतु इसे बनाया गया होगा, अत: इसे गरुड़ स्तंभ भी कहते हैं। १०५० में यह स्तंभ दिल्ली के संस्थापक अनंगपाल द्वारा लाया गया।

इस स्तंभ की ऊंचाई ७३५.५ से.मी. है। इसमें से ५० सेमी. नीचे है। ४५ से.मी. चारों ओर पत्थर का प्लेटफार्म है। इस स्तंभ का घेरा ४१.६ से.मी. नीचे है तथा ३०.४ से.मी. ऊपर है। इसके ऊपर गरुड़ की मूर्ति पहले कभी होगी। स्तंभ का कुल वजन ६०९६ कि.ग्रा. है। १९६१ में इसके रासायनिक परीक्षण से पता लगा कि यह स्तंभ आश्चर्यजनक रूप से शुद्ध इस्पात का बना है तथा आज के इस्पात की तुलना में इसमें कार्बन की मात्रा काफी कम है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के मुख्य रसायन शास्त्री डा. बी.बी. लाल इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इस स्तंभ का निर्माण गर्म लोहे के २०-३० किलो को टुकड़ों को जोड़ने से हुआ है। माना जाता है कि १२० कारीगरों ने पन्द्रह दिनों के परिश्रम के बाद इस स्तम्भ का निर्माण किया। आज से सोलह सौ वर्ष पूर्व गर्म लोहे के टुकड़ों को जोड़ने की उक्त तकनीक भी आश्चर्य का विषय है, क्योंकि पूरे लौह स्तम्भ में एक भी जोड़ कहीं भी दिखाई नहीं देता। सोलह शताब्दियों से खुले में रहने के बाद भी उसके वैसे के वैसे बने रहने (जंग न लगने) की स्थिति ने विशेषज्ञों को चकित किया है। इसमें फास्फोरस की अधिक मात्रा व सल्फर तथा मैंगनीज कम मात्रा में है। स्लग की अधिक मात्रा अकेले तथा सामूहिक रूप से जंग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा देते हैं। इसके अतिरिक्त ५० से ६०० माइक्रोन मोटी (एक माइक्रोन याने १ मि.मी. का एक हजारवां हिस्सा) आक्साइड की परत भी स्तंभ को जंग से बचाती है। 


(३) पारा -

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यूरोप में १७वीं सदी तक पारा क्या है, यह वे जानते नहीं थे। अत: फ्र्ांस सरकार के दस्तावेजों में इसे दूसरी तरह की चांदी ‘क्विक सिल्वर‘ कहा गया, क्योंकि यह चमकदार तथा इधर-उधर घूमने वाला होता है। वहां की सरकार ने यह कानून भी बनाया था कि भारत से आने वाली जिन औषधियों में पारे का उपयोग होता है उनका उपयोग विशेषज्ञ चिकित्सक ही करें।

भारतवर्ष में लोग हजारों वर्षों से पारे को जानते ही नहीं थे अपितु इसका उपयोग औषधि विज्ञान में बड़े पैमाने पर होता था। विदेशी लेखकों में सर्वप्रथम अलबरूनी ने, जो ११वीं सदी में भारत में लम्बे समय तक रहा, अपने ग्रंथ में पारे को बनाने और उपयोग की विधि को विस्तार से लिखकर दुनिया को परिचित कराया। पारे को शुद्ध कर उसे उपयोगी बनाने की विधि की आगे रसायनशास्त्र सम्बंधी विचार करते समय चर्चा करेंगे। परन्तु कहा जाता है कि सन्‌ १००० में हुए नागार्जुन पारे से सोना बनाना जानते थे। आश्चर्य की बात यह है कि स्वर्ण में परिवर्तन हेतु पारे को ही चुना, अन्य कोई धातु नहीं चुनी। आज का विज्ञान कहता है कि धातुओं का निर्माण उनके परमाणु में स्थित प्रोटॉन की संख्या के आधार पर होता है और यह आश्चर्य की बात कि पारे में ८० प्रोटॉन-इलेक्ट्रान तथा सोने में ७९ प्रोटॉन-इलेक्ट्रान होते हैं। 


(४) सोना-चांदी 

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क्र ए.डेल्मर अपनी पुस्तक में उल्लेख करता है कि सिन्धु नदी के उद्गम स्थल पर दो सरोवर हैं जिनका नाम स्वर्ण और रजत के कण वहां की सारी मिट्टी में प्राप्त होते हैं।

ऋग्वेद के छठे मंडल के ६१वें सूक्त का सातवां मंत्र सरस्वती और सिन्धु को हिरण्यवर्तनी कहता है।


रामायण, महाभारत, श्रीमद्‌ भागवद्‌, रघुवंश, कुमारसंभव आदि ग्रंथों में सोने व चांदी का उल्लेख मिलता है। स्वर्ण की भस्म बनाकर उसके औषधीय उपयोग की परम्परा शताब्दियों से भारत में प्रचलित रही है।


इसी प्रकार सोने, तांबे  तथा शीशे  के उपयोग के संदर्भ-अथर्ववेद, रसतरंगिणी, रसायनसार, शुक्रनीति, आश्वालायन गृह्यसूत्र, मनु स्मृति में मिलते हैं। रसरत्न समुच्चय ग्रंथ में अनेक धातुओं को भस्म में बदलने की विधि तथा उनका रोगों के निदान में उपयोग विस्तार के साथ लिखा गया है। इससे ज्ञान होता है कि धातु विज्ञान भारत में प्राचीन काल से विकसित रहा और इसका मानव कल्याण के लिए उपयोग करने के लिए विचित्र विधियां भारत में विकसित की गएं। 


#केरल_का_धातु_दर्पण


डा. मुरली मनोहर जोशी केरल में पत्तनम तिट्टा जिले में आरनमुड़ा नामक स्थान पर गए तो वहां उन्होंने पाया कि वहां के परिवारों में हाथ से धातु के दर्पण बनाने की तकनीक है। इन हाथ के बने धातु दर्पणों को जब उन्होंने विज्ञान समिति के अपने मित्रों को दिखाया तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि ये दर्पण मशीन से नहीं अपितु हाथ से बने हैं और सदियों से ये दर्पण भारत से निर्यात होते रहे हैं। हम कभी अपने छात्रों को यह नहीं बताते कि हमारे यहां ऐसी तकनीक है कि अभावों में जीकर भी परम्परागत कला लुप्त न हो जाए, इस भावना के कारण आज भी वे इसे छोड़ने को तैयार नहीं। देश को ऐसे लोगों की चिंता करना चाहिए।


दिनांक - ०७.०४.२०२२

हिन्दू धर्म की प्राचीनता

 #इतना_पुराना_है_सनातन_धर्म

तभी तो कहते हैं #वसुधैव_कुटुम्बकम्


क्या हिन्दू ही था विश्व का आ{ना}दिधर्म ???

कहते हैं कि एक समय था जबकि संपूर्ण धरती पर सिर्फ हिंदू थे। प्राचीन काल में भारत की सीमा अफगानिस्तान के हिन्दूकुश पर्वत से लेकर अरुणाचल तक और कश्मीर से लेकर श्रीलंका तक। दूसरी ओर अरुणाचल से लेकर इंडोनेशिया, मलेशिया तक फैली थी। 

इस संपूर्ण क्षेत्र में 18 महाजनपदों के सम्राटों का राज था जिसके अंतर्गत सैंकड़ों जनपद और उपजनपद थे। सात द्वीपों में बंटी धरती के संपूर्ण जम्बूद्वीप पर हिन्दू धर्म ही कायम था।

सप्तद्वीपपरिक्रान्तं जम्बूदीपं निबोधत।

अग्नीध्रं ज्येष्ठदायादं कन्यापुत्रं महाबलम।।

प्रियव्रतोअभ्यषिञ्चतं जम्बूद्वीपेश्वरं नृपम्।।

तस्य पुत्रा बभूवुर्हि प्रजापतिसमौजस:।

ज्येष्ठो नाभिरिति ख्यातस्तस्य किम्पुरूषोअनुज:।।

नाभेर्हि सर्गं वक्ष्यामि हिमाह्व तन्निबोधत। (वायु 31-37, 38)

क्या प्राचीनकाल में संपूर्ण धरती पर फैला था हिन्दू धर्म?

मैक्सिको, अमेरिका,रूस, कजाकिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उजबेकिस्तान, किर्गिस्तान, तुर्की, सीरिया, इराक, स्पेन, इंडोनेशिया, चीन आदि सभी जगह पर हिन्दू धर्म से जुड़े साक्ष्य पाए गए हैं। 

विद्वानों के अनुसार अरब की यजीदी, सबाइन, सबा, कुरैश आदि कई जातियों का प्राचीन धर्म हिन्दू ही था। मैक्सिको में एक खुदाई के दौरान गणेश और लक्ष्मी की प्राचीन मूर्तियां पाई गईं थी।

 'मैक्सिको' शब्द संस्कृत के 'मक्षिका' शब्द से आता है और मैक्सिको में ऐसे हजारों प्रमाण मिलते हैं जिनसे यह सिद्ध होता है। दूसरी ओर स्पेन में हजारों वर्ष पुराना एक मंदिर है जिस पर भगवान विष्णु की प्रतिमा अंकीत है।

चीन में हिन्दू

चीन के इतिहासकारों के अनुसार चीन के समुद्र से लगे औद्योगिक शहर च्वानजो में और उसके चारों ओर का क्षे‍त्र कभी हिन्दुओं का तीर्थस्थल था। वहां 1,000 वर्ष पूर्व के निर्मित हिन्दू मंदिरों के खंडहर पाए गए हैं। इसका सबूत चीन के समुद्री संग्रहालय में रखी प्राचीन मूर्तियां हैं। मात्र 500 से 700 ईसापूर्व ही चीन को महाचीन एवं प्राग्यज्योतिष कहा जाता था, लेकिन इसके पहले आर्य काल में यह संपूर्ण क्षेत्र हरिवर्ष, भद्राश्व और किंपुरुष नाम से प्रसिद्ध था।

रूस में हिन्दू

एक हजार वर्ष पहले रूस ने ईसाई धर्म स्वीकार किया। माना जाता है कि इससे पहले यहां असंगठित रूप से हिन्दू धर्म प्रचलित था और उससे भी पहले संगठित रूप से वैदिक पद्धति के आधार पर हिन्दू धर्म प्रचलित था। रूस में आज भी पुरातत्ववेताओं को कभी-कभी खुदाई करते हुए प्राचीन रूसी देवी-देवताओं की लकड़ी या पत्थर की बनी मूर्तियां मिल जाती हैं। कुछ मूर्तियों में दुर्गा की तरह अनेक सिर और कई-कई हाथ बने होते हैं। कुछ वर्ष पूर्व ही रूस में वोल्गा प्रांत के स्ताराया मायना (Staraya Maina) गांव में विष्णु की मूर्ति मिली थी जिसे 7-10वीं ईस्वी सन् का बताया गया। यह गांव 1700 साल पहले एक प्राचीन और विशाल शहर हुआ करता था। 2007 को यह विष्णु मूर्ति पाई गई। 7 वर्षों से उत्खनन कर रहे समूह के डॉ. कोजविनका कहना है कि मूर्ति के साथ ही अब तक किए गए उत्खनन में उन्हें प्राचीन सिक्के, पदक, अंगूठियां और शस्त्र भी मिले हैं।

अमेरिका में हिन्दू

शोधकर्ता कहते हैं कि आज से 9 लाख वर्ष पूर्व एक ऐसी विलक्षण वानर जाति भारतवर्ष में विद्यमान थी, जो लुप्त हो गई। इस जाति का नाम कपि था। वानरों के साम्राज्य की राजधानी किष्किंधा थी। सुग्रीव और बालि इस सम्राज्य के राजा थे। भारत के बाहर वानर साम्राज्य अमेरिका में भी था। सेंट्रल अमेरिका के मोस्कुइटीए (Mosquitia) में शोधकर्ता चार्ल्स लिन्द्बेर्ग ने एक ऐसी जगह की खोज की है जिसका नाम उन्होंने ला स्यूदाद ब्लैंका (La Ciudad Blanca) दिया है जिसका स्पेनिश में मतलब व्हाइट सिटी (The White City) होता है, जहां के स्थानीय लोग बंदरों की मूर्तियों की पूजा करते हैं। चार्ल्स का मानना है कि यह वही खो चुकी जगह है जहां कभी हनुमान का साम्राज्य हुआ करता था। एक अमेरिकन एडवेंचरर ने लिम्बर्ग की खोज के आधार पर गुम हो चुके ‘Lost City Of Monkey God’ की तलाश में निकले। 1940 में उन्हें इसमें सफलता भी मिली पर उसके बारे में मीडिया को बताने से एक दिन पहले ही एक कार दुर्घटना में उनकी मौत हो गई और यह राज एक राज ही बनकर रह गया। अमेरिका की माया सभ्यता के अवशेष भी हिन्दू धर्म से जुड़ते हैं।

अमेरिकन महाद्वीप के बोलीविया (वर्तमान में पेरू और चिली) में हिन्दुओं ने प्राचीनकाल में अपनी बस्तियां बनाईं और कृषि का भी विकास किया। यहां के प्राचीन मंदिरों के द्वार पर विरोचन, सूर्य द्वार, चन्द्र द्वार, नाग आदि सब कुछ हिन्दू धर्म समान हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका की आधिकारिक सेना ने नेटिव अमेरिकन की एक 45वीं मिलिट्री इन्फैंट्री डिवीजन का चिह्न एक पीले रंग का स्वास्तिक था। नाजियों की घटना के बाद इसे हटाकर उन्होंने गरूड़ का चिह्न अपनाया।

इंडोनेशिया में हिन्दू

इंडोनेशिया कभी हिन्दू राष्ट्र हुआ करता था, लेकिन इस्लामिक उत्थान के बाद यह राष्ट्र आज मुस्लिम राष्ट्र है। इंडोनेशिया का एक द्वीप है बाली जहां के लोग अभी भी हिन्दू धर्म का पालन करते हैं। इंडोनेशिया के द्वीप बाली द्वीप पर हिन्दुओं के कई प्राचीन मंदिर हैं, जहां एक गुफा मंदिर भी है। इस गुफा मंदिर को गोवा गजह गुफा और एलीफेंटा की गुफा कहा जाता है। 19 अक्टूबर 1995 को इसे विश्व धरोहरों में शामिल किया गया। यह गुफा भगवान शंकर को समर्पित है। यहां 3 शिवलिंग बने हैं। देश-विदेश से पर्यटक इसे देखने आते हैं।

कंबोडिया में हिन्दू

पौराणिक काल का कंबोजदेश कल का कंपूचिया और आज का कंबोडिया। पहले हिंदू रहा और फिर बौद्ध हो गया। विश्व का सबसे बड़ा हिन्दू मंदिर परिसर तथा विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक स्मारक कंबोडिया में स्थित है। यह कंबोडिया के अंकोर में है जिसका पुराना नाम 'यशोधरपुर' था। इसका निर्माण सम्राट सूर्यवर्मन द्वितीय (1112-53ई.) के शासनकाल में हुआ था। यह विष्णु मन्दिर है जबकि इसके पूर्ववर्ती शासकों ने प्रायः शिवमंदिरों का निर्माण किया था। कंबोडिया में बड़ी संख्या में हिन्दू और बौद्ध मंदिर हैं, जो इस बात की गवाही देते हैं कि कभी यहां भी हिन्दू धर्म अपने चरम पर था। माना जाता है कि प्रथम शताब्दी में कौंडिन्य नामक एक ब्राह्मण ने हिन्द-चीन में हिन्दू राज्य की स्थापना की थी। इन्हीं के नाम पर कम्बोडिया देश हुआ। हालांकि कम्बोडिया की प्राचीन दंतकथाओं के अनुसार इस उपनिवेश की नींव 'आर्यदेश' के शिवभक्त राजा कम्बु स्वायंभुव ने डाली थी। वे इस भयानक जंगल में आए और यहां बसी हुई नाग जाति के राजा की सहायता से उन्होंने यहां एक नया राज्य बसाया, जो नागराज की अद्भुत जादूगरी से हरे-भरे, सुंदर प्रदेश में परिणत हो गया। कम्बु ने नागराज की कन्या मेरा से विवाह कर लिया और कम्बुज राजवंश की नींव डाली। कम्बोडिया में हजारों प्राचीन हिन्दू और बौद्ध मंदिर है।

वियतनाम में हिन्दू

वियतनाम का इतिहास 2,700 वर्षों से भी अधिक प्राचीन है। वियतनाम का पुराना नाम चम्पा था। चम्पा के लोग और चाम कहलाते थे। वर्तमान समय में चाम लोग वियतनाम और कम्बोडिया के सबसे बड़े अल्पसंख्यक हैं। आरम्भ में चम्पा के लोग और राजा शैव थे लेकिन कुछ सौ साल पहले इस्लाम यहां फैलना शुरु हुआ। अब अधिक चाम लोग मुसलमान हैं पर हिन्दू और बौद्ध चाम भी हैं। भारतीयों के आगमन से पूर्व यहां के निवासी दो उपशाखाओं में विभक्त थे। हालांकि संपूर्ण वियतनाम पर चीन का राजवंशों का शासन ही अधिक रहा। दूसरी शताब्दी में स्थापित चंपा भारतीय संस्कृति का प्रमुख केंद्र था। यहां के चम लोगों ने भारतीय धर्म, भाषा, सभ्यता ग्रहण की थी। 1825 में चंपा के महान हिन्दू राज्य का अंत हुआ। श्री भद्रवर्मन् जिसका नाम चीनी इतिहास में फन-हु-ता (380-413 ई.) मिलता है, चंपा के प्रसिद्ध सम्राटों में से एक थे जिन्होंने अपनी विजयों ओर सांस्कृतिक कार्यों से चंपा का गौरव बढ़ाया। किंतु उसके पुत्र गंगाराज ने सिंहासन का त्याग कर अपने जीवन के अंतिम दिन भारत में आकर गंगा के तट पर व्यतीत किए। चम्पा संस्कृति के अवशेष वियतनाम में अभी भी मिलते हैं। इनमें से कई शैव मन्दिर हैं।

मलेशिया में हिन्दू

मलेशिया वर्तमान में एक मुस्लिम राष्ट्र है लेकिन पहले ये एक हिन्दू राष्ट्र था। मलय प्रायद्वीप का दक्षिणी भाग मलेशिया देश के नाम से जाना जाता है। इसके उत्तर में थाइलैण्ड, पूर्व में चीन का सागर तथा दक्षिण और पश्चिम में मलाक्का का जलडमरूमध्य है।

उत्तर मलेशिया में बुजांग घाटी तथा मरबाक के समुद्री किनारे के पास पुराने समय के अनेक हिन्दू तथा बौद्ध मंदिर आज भी हैं। मलेशिया अंग्रेजों की गुलामी से 1957 में मुक्त हुआ। वहां पहाड़ी पर बटुकेश्वर का मंदिर है जिसे बातू गुफा मन्दिर कहते हैं। वहां पहुंचने के लिए लगभग 276 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। पहाड़ी पर कुछ प्राचीन गुफाएं भी हैं। पहाड़ी के पास स्थित एक बड़े मंदिर देखने में हनुमानजी की भी एक भीमकाय मूर्ति लगी है।

सिंगापुर में हिन्दू

सिंगापुर एक छोटा सा राष्ट्र है। यह ब्राईंदेश दक्षिण में मलय महाद्वीप के दक्षिण सिरे के पास छोटा-सा द्वीप है। इसके उत्तर में मलेशिया का किनारा, पूर्व की ओर चीन का समुद्र और दक्षिण-पश्चिम की ओर मलक्का का जलडमरू- मध्य है। 14वीं सदी तक सिंगापुर टेमासेक नाम से जाना जाता था। सुमात्रा के पॉलेमबग का राजपुत्र संगनीला ने इसे बासाया था तब इसका नाम सिंहपुर था। यहां इस बात के चिन्ह मिलते हैं कि उनका कभी हिन्दू धर्म से भी निकट का संबंध था। 1930 तक उनकी भाषा में संस्कृत भाषा के शब्दों का समावेश है। उनके नाम हिन्दुओं जैसे होते थे और कुछ नाम आज भी अपभ्रंश रूप में हिन्दू नाम ही हैं।

थाइलैंड में हिन्दू

थाइलैंड एक बौद्ध राष्ट्र है। यहां पर प्राचीनकाल में हिन्दू और बौद्ध दोनों ही धर्म और संस्कृति का एक साथ प्रचलन था लेकिन अब हिन्दू नगण्य है। खैरात के दक्षिण-पूर्व में कंबोडिया की सीमा के पास उत्तर में लगभग 40 कि.मी. की दूरी पर युरिराम प्रांत में प्रसात फ्नाम रंग नामक सुंदर मंदिर है। यह मंदिर आसपास के क्षेत्र से लगभग 340 मी. ऊंचाई पर एक सुप्त ज्वालामुखी के मुख के पास स्थित है। इस मंदिर में शंकर तथा विष्णु की अति सुंदर मूर्ति हैं।

फिलीपींस :

फिलीपींस में किसी समय भारतीय संस्कृति का पूर्ण प्रभाव था, पर 15वीं शताब्दी में मुसलमानों ने आक्रमण कर वहां आधिपत्य जमा लिया। आज भी फिलीपींस में कुछ हिन्दू रीति-रिवाज प्रचलित हैं।

जर्मन में हिन्दू

जर्मनी तो खुद को आर्य मानते ही हैं। लेकिन आश्चर्य की जर्मन में 40 हजार साल पुरानी भगवान नरसिंह की मूर्ति मिली। ये मूर्ति सन 1939 में पाई गई थी। ये मूर्ति इंसानों की तरह दिखने वाले शेर की है। जिसकी लंबाई 29.6 सेंटीमीटर (11.7 सेमी) है। कॉर्बन डेटिंग पद्धति से बताया गया है कि यह लगभग 40 हजार साल पुरानी है। ये मूर्ति होहलंस्टैंन स्टैडल, जर्मन घाटी क्षेत्र में मिली थी। द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ने के बाद गायब हो गई थी। बाद में उसे खोजा गया। ये मूर्ति खंडित अवस्था में मिली थी और 1997-1998 के दौरान कुछ लोगों ने उसे जोड़ा। सन् 2015 में उसे म्यूजियम में रखा गया ।