1. संस्थापक और प्रारंभिक काल:
नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना गुप्त सम्राट कुमारगुप्त प्रथम ने 5वीं शताब्दी में की थी। हालांकि, बहुत कम लोग जानते हैं कि इस विश्वविद्यालय की नींव की प्रेरणा महान विद्वान और बौद्ध भिक्षु शीलभद्र से मिली थी, जिन्होंने इसका प्रारंभिक स्वरूप तैयार किया।
2. बौद्ध धर्म का केंद्र:
नालंदा केवल भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के बौद्ध धर्म के अध्ययन और अनुसंधान का एक प्रमुख केंद्र था। यहां पर कई महान बौद्ध विद्वान, जैसे शांतरक्षित, धर्मपाल और अति प्रसिद्ध यात्री ह्वेन त्सांग (ह्वानसांग) ने अध्ययन और शिक्षण किया।
3. पुस्तकालय और शिक्षा प्रणाली:
नालंदा में एक विशाल पुस्तकालय था जिसे "धर्मगंज" कहा जाता था। इसमें तीन भाग थे - रत्नसागर, रत्नोदधि, और रत्नरंजक। कहा जाता है कि इस पुस्तकालय में लाखों पांडुलिपियाँ थीं, और इसे जलने में कई महीनों का समय लगा जब तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने 12वीं शताब्दी में इसे नष्ट किया।
4. बहु-विषयक अध्ययन:
नालंदा विश्वविद्यालय में केवल बौद्ध धर्म ही नहीं, बल्कि अन्य विषय जैसे गणित, खगोलशास्त्र, चिकित्सा, तर्कशास्त्र, और वेदों का भी अध्ययन होता था। यह विश्वविद्यालय एक बहु-विषयक शिक्षा प्रणाली का उदाहरण था, जो अपने समय से काफी आगे थी।
5. अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा:
नालंदा की प्रतिष्ठा इतनी थी कि यह विभिन्न देशों से छात्रों और विद्वानों को आकर्षित करता था। तिब्बत, चीन, कोरिया, जापान, मंगोलिया, तुर्की, श्रीलंका और दक्षिण पूर्व एशिया के छात्र यहां अध्ययन करने आते थे। ह्वेन त्सांग और इत्सिंग जैसे चीनी यात्रियों ने नालंदा में बिताए अपने समय का विस्तृत वर्णन किया है, जिससे हमें उस समय की शिक्षा और संस्कृति का ज्ञान मिलता है।
6. नालंदा का पतन:
12वीं शताब्दी में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी के आक्रमण के बाद नालंदा विश्वविद्यालय को भारी नुकसान हुआ और इसे जला दिया गया। यह कहा जाता है कि खिलजी ने यह कदम इसलिए उठाया क्योंकि वह बौद्ध धर्म के इस प्रमुख केंद्र को नष्ट करना चाहता था।
नालंदा विश्वविद्यालय का इतिहास न केवल शिक्षा और ज्ञान का प्रतीक है, बल्कि यह भारतीय सांस्कृतिक धरोहर और विश्व विरासत का भी महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसका पुनर्जागरण और संरक्षण आज के समय में भी महत्वपूर्ण है ताकि आने वाली पीढ़ियाँ इसकी महानता और गौरव को जान सकें।
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