शनिवार, 14 दिसंबर 2013

क्या करूँ वक्त नहीं

हर खुशी है लोगों के दामन में पर एक हंसी के लिये वक्त नहीं,
दिन रात दौड़्ती दुनिया में जिंदगी के लिये ही वक्त नहीं |

माँ की लोरी का अहसास तो है पर माँ को माँ कहने का वक्त नहीं,
सारे रिश्तों को मार चुके पर अब उन्हें दफनाने का वक्त नहीं |

सारे नाम मोबाईल में है पर दोस्ती के लिये वक्त नहीं,
गैरों की क्या बात करें जब अपनों के लिये ही वक्त नहीं |

आँखों में है नींद बड़ी पर सोने का भी वक्त नहीं,
दिल है गमों से भरा हुआ पर रोने का भी वक्त नहीं |

पैसों की दौड़ में ऐसे दौड़े की थकने का भी वक्त नहीं,
पराए अहसान की क्या कद्र करें जब अपने सपनो के लिये ही वक्त नहीं |

तू ही बता ऐ जिंदगी इस जिंदगी का क्या होगा,
कि हर पल मरने वालों को जिने के लिये भी वक्त नहीं |

मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

घर के शेर

हम भारत के भरत घर के शेर
बाहर जाते ही हो जाते ढेर ।

फिरंगियों से मुँह की खाई ,
कंगारूओं ने धूल चटाई ।

अबकी बार ताल ठोक कर बोले,
अफ्रीका जाते ही चुभ गए शोले ।

पहला वन फॉर वन,
सभी रह गये सन ।

दूसर में बोले बीफोर ,
अबकी वन थ्री  फॉर ।

स्टेन गन के आगे हो गये ढेर,
१०० से कम नहीं पिटेंगे फ़ेर।

फिजां का मिजाज

फिजां का मिजाज बहुत ठण्डा है ,
हर साल झेलना पड़ता ये फण्डा  है ।
कृपा करो हे देव सविता ,
लिखूँ  मैं अपनी छोटी सी कविता ।
नन्हे मुन्ने शाम को सो जाते,
सुबह कविता ये गाते ।
भोर हुई लो सूरज आया ,
अपने संग किरणों को लाया ।
मीठे गीत कोयल गाती ,
सब के मन को भाती । 

आधुनिकता

आधुनिकता में खो गयी 

दादी का चरखा खो गया ,
दादा का ढेरिया खो गया । 

खाती काका का हथोड़ा खो गया ,
खाट सालता हाथ कहीं  खो गया । 

नाई के उस्तरे की धार खो गई ,
कुम्हार के चाक की शान खो गई । 

गुवाड़ बिना हथाई खो गई ,
पनिहारिन बिना मटकी खो गई । 

गाँव  गाँव  घूमते  लुहार खो गये ,
लगता है कहीं  टापरा बनाके सो गये । 

बैलों के गलों से घुँघुरू की झंकार खो गई ,
आधुनिकता में अतीत कि सुन्दरता खो गई