शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2021

भगवान_श्रीकृष्ण की 16 कलाएं

 #प्रभु_श्रीकृष्ण_की_16_कलाएं


कौन कौन सी थीं भगवान श्री कृष्ण की वो #16_कलाऐं 

     

    #सोलह_कला_पूर्ण कहा जाता है #भगवान_श्रीकृष्ण को इसीलिए वे पूर्ण पुरुष भी कहलाए। वे विष्णु के अवतार ,युग पुरुष , गीता- ज्ञान देकर समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक हैं श्री कृष्‍ण। वे सोलह कलाऐं कौन कौन सी हैं जिनके बल पर श्रीकृष्ण नटखट बालक, विशुद्ध प्रेमी, ज्ञान के आधार और तर्कयोद्धा कहलाए तो आइए जानते हैं उन सोलह कलाओं के बारे में जिनमें भगवान श्रीकृष्ण निपुण थे।


🕉️🚩पहली कला- #श्रीधन (संपदा)

प्रथम कला के रूप में धन संपदा को स्थान दिया गया है। जिस व्यक्ति के पास अपार धन हो और वह आत्मिक रूप से भी धनवान हो। जिसके घर से कोई भी खाली हाथ नहीं जाए वह प्रथम कला से संपन्न माना जाता है। यह कला भगवान श्री कृष्ण में मौजूद है।


🕉️🚩दूसरी कला- #भू_अचल_संपत्ति

जिस व्यक्ति के पास पृथ्वी का राज भोगने की क्षमता है। पृथ्वी के एक बड़े भू-भाग पर जिसका अधिकार है और उस क्षेत्र में रहने वाले जिसकी आज्ञाओं का सहर्ष पालन करते हैं वह अचल संपत्ति का मालिक होता है। भगवान श्री कृष्ण ने अपनी योग्यता से द्वारिका पुरी को बसाया। इसलिए यह कला भी इनमें मौजूद है।


🚩🕉️तीसरी कला- #कीर्ति (यश-प्रसिद्धि)

जिसके मान-सम्मान व यश की कीर्ति से चारों दिशाओं में गूंजती हो। लोग जिसके प्रति स्वत: ही श्रद्घा व विश्वास रखते हों वह तीसरी कला से संपन्न होता है। भगवान श्री कृष्ण में यह कला भी मौजूद है। लोग सहर्ष श्री कृष्ण की जयकार करते हैं।


🕉️🚩चौथी कला- #इला (वाणी की सम्मोहकता)

चौथी कला का नाम इला है जिसका अर्थ है मोहक वाणी। भगवान श्री कृष्ण में यह कला भी मौजूद है। पुराणों में भी ये उल्लेख मिलता है कि श्री कृष्ण की वाणी सुनकर क्रोधी व्यक्ति भी अपना सुध-बुध खोकर शांत हो जाता था। मन में भक्ति की भावना भर उठती थी। यशोदा मैया के पास शिकायत करने वाली गोपियां भी कृष्ण की वाणी सुनकर शिकायत भूलकर तारीफ करने लगती थी।


🕉️🚩पांचवीं कला- #लीला (आनंद उत्सव)

पांचवीं कला का नाम है लीला। इसका अर्थ है आनंद। भगवान श्री कृष्ण धरती पर लीलाधर के नाम से भी जाने जाते हैं क्योंकि इनकी बाल लीलाओं से लेकर जीवन की घटना रोचक और मोहक है। इनकी लीला कथाओं सुनकर कामी व्यक्ति भी भावुक और विरक्त होने लगता है।


🕉️🚩छठवीं कला- #कांति  (सौदर्य और आभा)

जिनके रूप को देखकर मन स्वत: ही आकर्षित होकर प्रसन्न हो जाता है। जिसके मुखमंडल को देखकर बार-बार छवि निहारने का मन करता है वह छठी कला से संपन्न माना जाता है। भगवान राम में यह कला मौजूद थी। कृष्ण भी इस कला से संपन्न थे। कृष्ण की इस कला के कारण पूरा ब्रज मंडल कृष्ण को मोहिनी छवि को देखकर हर्षित होता था। गोपियां कृष्ण को देखकर काम पीडि़त हो जाती थीं और पति रूप में पाने की कामना करने लगती थीं।


🚩🕉️सातवीं कला- #विद्या (मेधा बुद्धि)

सातवीं कला का नाम विद्या है। भगवान श्री कृष्ण में यह कला भी मौजूद थी। कृष्ण वेद, वेदांग के साथ ही युद्घ और संगीत कला में पारंगत थे। राजनीति एवं कूटनीति भी कृष्ण सिद्घहस्त थे।


🕉️🚩कला आठवीं- #विमला (पारदर्शिता)

जिसके मन में किसी प्रकार का छल-कपट नहीं हो वह आठवीं कला युक्त माना जाता है। भगवान श्री कृष्ण सभी के प्रति समान व्यवहार रखते हैं। इनके लिए न तो कोई बड़ा है और न छोटा। महारास के समय भगवान ने अपनी इसी कला का प्रदर्शन किया था। इन्होंने राधा और गोपियों के बीच कोई फर्क नहीं समझा। सभी के साथ सम भाव से नृत्य करते हुए सबको आनंद प्रदान किया था।


🕉️🚩नौवीं कला- #उत्कर्षिणि (प्रेरणा और नियोजन)

महाभारत के युद्घ के समय श्री कृष्ण ने नौवी कला का परिचय देते हुए युद्घ से विमुख अर्जुन को युद्घ के लिए प्रेरित किया और अधर्म पर धर्म की विजय पताका लहराई। नौवीं कला के रूप में प्रेरणा को स्थान दिया गया है। जिसमें इतनी शक्ति मौजूद हो कि लोग उसकी बातों से प्रेरणा लेकर लक्ष्य भेदन कर सकें।


🕉️🚩दसवीं कला- #ज्ञान (नीर क्षीर विवेक)

भगवान श्री कृष्ण ने जीवन में कई बार विवेक का परिचय देते हुए समाज को नई दिशा प्रदान की जो दसवीं कला का उदाहरण है। गोवर्धन पर्वत की पूजा हो अथवा महाभारत युद्घ टालने के लिए दुर्योधन से पांच गांव मांगना यह कृष्ण के उच्च स्तर के विवेक का परिचय है।


🕉️🚩ग्‍यारहवीं कला- #क्रिया (कर्मण्यता)

ग्यारहवीं कला के रूप में क्रिया को स्थान प्राप्त है। भगवान श्री कृष्ण इस कला से भी संपन्न थे। जिनकी इच्छा मात्र से दुनिया का हर काम हो सकता है वह कृष्ण सामान्य मनुष्य की तरह कर्म करते हैं और लोगों को कर्म की प्रेरणा देते हैं। महाभारत युद्घ में कृष्ण ने भले ही हाथों में हथियार लेकर युद्घ नहीं किया लेकिन अर्जुन के सारथी बनकर युद्घ का संचालन किया।


🚩🕉️बारहवीं कला- #योग (चित्तलय)

जिनका मन केन्द्रित है, जिन्होंने अपने मन को आत्मा में लीन कर लिया है वह बारहवीं कला से संपन्न श्री कृष्ण हैं। इसलिए श्री कृष्ण योगेश्वर भी कहलाते हैं। कृष्ण उच्च कोटि के योगी थे। अपने योग बल से कृष्ण ने ब्रह्मास्त्र के प्रहार से माता के गर्भ में पल रहे परीक्षित की रक्षा की। मृत गुरू पुत्र को पुर्नजीवन प्रदान किया।


🚩🕉️तेरहवीं कला- #प्रहवि (अत्यंतिक विनय)

तेरहवीं कला का नाम प्रहवि है। इसका अर्थ विनय होता है। भगवान कृष्ण संपूर्ण जगत के स्वामी हैं। संपूर्ण सृष्टि का संचलन इनके हाथों में है फिर भी इनमें कर्ता का अहंकार नहीं है। गरीब सुदामा को मित्र बनाकर छाती से लगा लेते हैं। महाभारत युद्घ में विजय का श्रेय पाण्डवों को दे देते हैं। सब विद्याओं के पारंगत होते हुए भी ज्ञान प्राप्ति का श्रेय गुरू को देते हैं। यह कृष्ण की विनयशीलता है।


🕉️🚩चौदहवीं कला- #सत्य (यर्थाथ)

भगवान श्री कृष्ण की चौदहवीं कला का नाम सत्य है। श्री कृष्ण कटु सत्य बोलने से भी परहेज नहीं रखते और धर्म की रक्षा के लिए सत्य को परिभाषित करना भी जानते हैं यह कला सिर्फ कृष्ण में है। शिशुपाल की माता ने कृष्ण से पूछा की शिशुपाल का वध क्या तुम्हारे हाथों होगी। कृष्ण नि:संकोच कह देते हैं यह विधि का विधान है और मुझे ऐसा करना पड़ेगा।


🕉️🚩पंद्रहवीं कला- #इसना (आधिपत्य)

पंद्रहवीं कला का नाम इसना है। इस कला का तात्पर्य है व्यक्ति में उस गुण का मौजूद होना जिससे वह लोगों पर अपना प्रभाव स्थापित कर पाता है। जरूरत पडऩे पर लोगों को अपने प्रभाव का एहसास दिलाता है। कृष्ण ने अपने जीवन में कई बार इस कला का भी प्रयोग किया जिसका एक उदाहरण है मथुरा निवासियों को द्वारिका नगरी में बसने के लिए तैयार करना।


🕉️🚩सोलहवीं कला- #अनुग्रह (उपकार)

बिना प्रत्युकार की भावना से लोगों का उपकार करना यह सोलवीं कला है। भगवान कृष्ण कभी भक्तों से कुछ पाने की उम्मीद नहीं रखते हैं लेकिन जो भी इनके पास इनका बनाकर आ जाता है उसकी हर मनोकामना पूरी करते हैं।

जय जय श्री राधे जय जय श्री हरि मुरारी

दिनांक :- २४.०१.२०२१

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2021

देवी_अनुसूया_का_मंदिर

 #रामायणकालीन इंडोनेशिया का प्राचीन वैदिक मंदिर - 

#देवी_अनुसूया_का_मंदिर 


इस प्राचीन मंदिर का वर्तमान नाम #Pura_Besakih_Temple है । यह संस्कृत नाम है, जो #वैशाखपुर का अपभ्रंस है ।। #वैशाख का हिन्दीअर्थ होता है चांद या सोम की माता । सोम की माता अनुसूया को कहा गया है ।

#देवी_अनुसूया को केवल सोम की माता ही नही, बल्कि ब्रह्मा विष्णु की माता भी कहा गया है ।।  इसी कारण यह मंदिर ब्रह्मा-विष्णु-महेश का मंदिर कहा जाता है, साथ ही इसे सभी मंदिरो की माता भी कहा जाता है ।।


#देवी_अनसूया प्रजापति #कर्दम और #देवहूति की 9 कन्याओं में से एक तथा #अत्रि मुनि की पत्नी थीं। अत्रि  का अपभ्रंस वर्तमान में इटली की एक सभ्यता भी है ।। उनकी पति-भक्ति अर्थात सतीत्व का तेज इतना अधिक था के उसके कारण आकाशमार्ग से जाते देवों को उसके प्रताप का अनुभव होता था। इसी कारण उन्हें 'सती अनसूया' भी कहा जाता है। अनसूया ने राम, सीता और लक्ष्मण का अपने आश्रम में स्वागत किया था। उन्होंने सीता को उपदेश दिया था और उन्हें अखंड सौंदर्य की एक ओषधि भी दी थी। सतियों में उनकी गणना सबसे पहले होती है। 


एक बार ब्रह्मा, विष्णु व महेश उनकी सतीत्व की परीक्षा करने की सोची, जो की अपने आप में एक रोचक कथा है।


पतिव्रता देवियों में अनसूया का स्थान सबसे ऊँचा है। उनके संबंध में बहुत सी लोकोत्तर कथाएँ शास्त्रों में सुनी जाती हैं। आश्रम में गये तो श्रीअनसूयाजी ने #सीताजी को पातिव्रतधर्म की विस्तारपूर्वक शिक्षा दी थी। उनके संबंध में एक बड़ी रोचक कथा है। 


एक बार ब्रह्माणी, लक्ष्मी और गौरी में यह विवाद छिड़ा कि सर्वश्रेष्ठ पतिव्रता कौन है? अंत में तय यही हुआ कि अत्रि पत्‍‌नी श्रीअनसूया ही इस समय सर्वश्रेष्ठ पतिव्रता हैं। इस बात की परीक्षा लेने के लिये त्रिमूर्ती ब्रह्मा, विष्णु व शंकर ब्राह्मण के वेश में अत्रि-आश्रम पहुँचे। अत्रि ऋषि किसी कार्यवश बाहर गये हुए थे। अनसूया ने अतिथियों का बड़े आदर से स्वागत किया। तीनों ने अनसूयाजी से कहा कि हम तभी आपके हाथ से भीख लेंगे जब आप अपने सभी को अलग रखकर भिक्षा देंगी। सती बड़े धर्म-संकट में पड़ गयी। वह भगवान को स्मरण करके कहने लगी "यदि मैंने पति के समान कभी किसी दूसरे पुरुष को न देखा हो, यदि मैंने किसी भी देवता को पति के समान न माना हो, यदि मैं सदा मन, वचन और कर्म से पति की आराधना में ही लगी रही हूँ तो मेरे इस सतीत्व के प्रभाव से ये तीनों नवजात शिशु हो जाँय।" तीनों देव नन्हे बच्चे होकर श्रीअनसूयाजी की गोद में खेलने लगे।


संभव है जिस स्थान पर यह घटना हुई, यह वही मंदिर है । बर्फीले पहाड़ो का आध्यात्मिक महत्व ज़्यादा है, ओर यह मंदिर बर्फीली जगह के आसपास ही है ।।


श्रेय :- धीरेन्द्र भाई

दिनांक :- १९.०२.२०२१

बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

पुष्य_नक्षत्र

 #पुष्य_नक्षत्र #पुष्य_योग #गुरु_पुष्य_संयोग


सनातन धर्म में बहुत शुभ माना जाता है पुष्य नक्षत्र, कल #28_जनवरी को है पहली बार


#सनातन_धर्म की परम्पराएं और धार्मिक मूल्य अद्भुत हैं. ग्रह नक्षत्रों का लेखा जोखा, शुभ अशुभ समय का योग ये सब कुछ हमारे धर्म की विशेष पहचान है. इसीलिए जन्म से लेकर विवाह और किसी भी धार्मिक आयोजन में इन सभी बातों का विशेष ध्यान रखा जाता है. गृह प्रवेश और खरीददारी जैसे महत्वपूर्ण काम भी लोग ग्रह नक्षत्र के हिसाब से करते हैं. #पुष्य नक्षत्र को बहुत ही शुभ माना जाता है. और इस साल का पहला गुरु पुष्य योग कल यानि 28 जनवरी को पूरे दिन रहेगा. जो कि पूरे दिन–रात रहेगा और 29 जनवरी को खत्म होगा। ये साल का पहला गुरु पुष्य योग है. #गुरु_पुष्य संयोग साल में 3 या 4 बार ही बनता है. इस साल 28 जनवरी के बाद ये संयोग 25 फरवरी को फिर से बनेगा. लेकिन दोपहर करीब 1.15 तक ही रहेगा. इसके बाद दीपावली के पहले 28 अक्टूबर को पूरे दिन, और उसके बाद गुरु पुष्य नक्षत्र का ये शुभ मुहूर्त 25 नवंबर के दिन आएगा, और सूर्योदय से सूर्यास्त तक ये शुभ संयोग बना रहेगा.


ज्योतिषियों का मत है कि गुरु पुष्य संयोग होने से खरीद–फरोख्त और पूजा–पाठ के लिए ये दिन शुभ और मंगलकारी रहेगा. इस दिन पौष महीने की पूर्णिमा भी रहेगी. इस पर्व पर तीर्थ–स्नान और दान करने से विशेष पुण्य और धर्म लाभ मिलेगा.


इसके अलावा भी इसी वर्ष यानि 2021 में तीन बार पुष्य नक्षत्र का योग और बन रहा है. धार्मिक मान्यता के अनुसार गुरु पुष्य नक्षत्र के संयोग में खरीदारी करना शुभ तो होता ही है, साथ ही लंबे समय तक इसका फायदा मिलता है. और कल गुरुवार यानि 28 जनवरी को जो गुरु पुष्य योग बन रहा है, वो तो खरीदारी के लिए पूरा दिन शुभ रहेगा. ख़ास तौर पर पौष महीने की पूर्णिमा और पुष्य नक्षत्र का एक साथ होना ज्यादा शुभ माना गया है. क्योंकि चंद्रमा अपनी ही राशि यानी कर्क में रहेगा, जिससे इस दिन की शुभता और बढ़ जाएगी. ऐसे शुभ योग में भूमि, भवन और वाहन खरीदी के साथ ही नया कारोबार शुरू करना श्रेष्ठ होता है, और पूर्णिमा का व्रत रखने से आर्थिक संकट भी दूर होता है.

योजन

 #योजन

#वैदिक_काल_की_हिन्दू_दूरी_मापन_की_इकाई 

100 योजन से एक महायोजन बनता है। 

चार गाव्यूति = एक योजन


१ योजन कितनी दूरी होती है, यह अलग-अलग भारतीय खगोलविदों ने अलग-अलग दिया है। सूर्य सिद्धान्त में १ योजन को ८ मील के बराबर लिया गया है। इसी तरह आर्यभटीय में भी १ योजन को ८ मील लिया गया है। किन्तु १४वीं शताब्दी के खगोलविद परमेश्वर ने १ योजन को १३ मील के बराबर लिया है।


▪️विष्णु पुराण के अनुसार मानव हस्त परिमाण इस प्रकार हैं:- (चित्र संलग्न है)


अंगुष्ठ से दूरी 

तर्जनी तक=प्रदेश

मध्यमा तक=नाल

अनामिका तक=गोकर्ण

कनिष्ठिका तक= वितस्ति = 12 अंगुल


(वायु पुराण के अनुसार एक अंगुल, अंगुली की एक गांठ के बराबर है, और अन्य प्राधिकारियों के अनुसार सिरे पर अंगुष्ठ की मोटाई के बराबर है.)


▪️वायु ने मनु के अधिकार के अन्तर्गत उपरोक्त समान गणना दी है, जो कि मनु संहिता में नहीं उल्लेखित है:-


21 अंगुल= 1 रत्नि

24 अंगुल= 1 हस्त

2 रत्नि= 1 किश्कु

4 हस्त= 1 धनु

2000 धनु= 1 गाव्यूति

8000 धनुष= 1 योजन

1 अंगुल = 16 mm से 21 mm

4 अंगुल = एकधनु ग्रह = 62 mm से 83 mm;

8 अंगुल = एक धनु मुष्टि (अंगुष्ठ उठा के) = 125 mm से 167 mm ;

12 अंगुल = 1 वितस्ति (अंगुषठ के सिरे से पूरे हाथ को खोल कर कनिष्ठिका अंगुली के सिरे तक की दूरी) = 188 mm से 250 mm

2 वितस्ति = 1 अरत्नि (हस्त) = 375 mm से 500 mm

4 अरत्नि = 1 दण्ड = 1.5 से 2.0 m

2 दण्ड = 1 धनु = 3 से 4 m

5 धनु = 1 रज्जु = 15 m से 20 m

2 रज्जु = 1 परिदेश = 30 m से 40 m

100 परिदेश = 1 कोस (या गोरत) = 3 km से 4 km

4 कोस या कोश = 1 योजन = 13 km से 16 km

1,000 योजन = 1 महायोजन = 13,000 Km से 16,000 Km


▪️विष्णु पुराण :- भाग १, अध्याय षष्ठम के अनुसार  

10 परमाणु= 1 परसूक्षम

10 परसूक्षम= 1 तृसरेणु

10 तृसरेणु= 1 धूलि कण या महिरजस

10 महिरजस= 1 बाल अग्र (बालाग्र)

10 बालाग्र= 1 लिख्या

10 लिख्या= 1 यूक

10 यूक= 1 यवोदर (जौ का बीज)

10 यवोदर= 1 जौ का दाना (औसत आकार)

10 जौ के दाने= 1 अंगुल या इंच

6 अंगुल= एक पद

2 पद= 1 वितस्ति

2 वितस्ति= 1 हस्त

4 हस्त= एक धनुष या दण्ड

2 धनुष/दण्ड= एक नाड़िका

2000 धनुष= एक गाव्यूति

4 गाव्यूति= एक योजन

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वैदिक_मापन_प्रणाली

 #वैदिक_मापन_प्रणाली

#पुनर्निर्देशित_हिन्दू_काल_गणना


गणित और मापन के बीच घनिष्ट सम्बन्ध है। इसलिये आश्चर्य नहीं कि भारत में अति प्राचीन काल से दोनो का साथ-साथ विकास हुआ। लगभग सभी प्राचीन भारतीय ने अपने दैनिक-ग्रन्थों में मापन, मापन की इकाइयों एवं मापनयन्त्रों का वर्णन किया है।

संस्कृत कें शुल्ब शब्द का अर्थ नापने की रस्सी या डोरी होता है। अपने नाम के अनुसार शुल्ब सूत्रों में यज्ञ-वेदियों को नापना, उनके लिए स्थान का चुनना तथा उनके निर्माण आदि विषयों का विस्तृत वर्णन है।ब्रह्मगुप्त के ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त के २२वें अध्याय का नाम 'यन्त्राध्याय' है।

#समय 

मुख्य लेख: हिन्दू काल गणना

प्राचीन हिन्दू खगोलीय और पौराणिक ग्रन्थों में वर्णित समय चक्र आश्चर्यजनक रूप से एक समान हैं। प्राचीन भारतीय भार और मापन पद्धतियां अभी भी प्रयोग में हैं, मुख्यतः हिन्दू और जैन धर्म के धार्मिक उद्देश्यों में। यह सभी सुरत शब्द योग में भी पढ़ाई जातीं हैं। इसके साथ साथ ही हिन्दू ग्रन्थों में लम्बाई, भार, क्षेत्रफल मापन की भी इकाइयाँ परिमाण सहित उल्लिखित हैं।


हिन्दू ब्रह्माण्डीय समयचक्र सूर्य सिद्धांत के पहले अध्याय के श्लोक 11–23 में आते हैं।


(श्लोक 11) : वह जो कि श्वास (प्राण) से आरम्भ होता है, यथार्थ कहलाता है; और वह जो त्रुटि से आरम्भ होता है, अवास्तविक कहलाता है। छः श्वास से एक विनाड़ी बनती है। साठ श्वासों से एक नाड़ी बनती है।


(12) और साठ नाड़ियों से एक दिवस (दिन और रात्रि) बनते हैं। तीस दिवसों से एक मास (महीना) बनता है। एक नागरिक (सावन) मास सूर्योदयों की संख्याओं के बराबर होता है।


(13) एक चंद्र मास, उतनी चंद्र तिथियों से बनता है। एक सौर मास सूर्य के राशि में प्रवेश से निश्चित होता है। बारह मास एक वर्ष बनाते हैं। एक वर्ष को देवताओं का एक दिवस कहते हैं।


(14) देवताओं और दैत्यों के दिन और रात्रि पारस्परिक उलटे होते हैं। उनके छः गुणा साठ देवताओं के दिव्यवर्ष होते हैं। ऐसे ही दैत्यों के भी होते हैं।


(15) बारह सहस्र (हजार) दिव्य वर्षों को एक चतुर्युग कहते हैं। यह चार लाख बत्तीस हजार सौर वर्षों का होता है।


(16) चतुर्युगी की उषा और संध्या काल होते हैं। कॄतयुग या सतयुग और अन्य युगों का अन्तर, जैसे मापा जाता है, वह इस प्रकार है, जो कि चरणों में होता है:


(17) एक चतुर्युगी का दशांश को क्रमशः चार, तीन, दो और एक से गुणा करने पर कॄतयुग और अन्य युगों की अवधि मिलती है। इन सभी का छठा भाग इनकी उषा और संध्या होता है।


(18) इकहत्तर चतुर्युगी एक मन्वन्तर या एक मनु की आयु होते हैं। इसके अन्त पर संध्या होती है, जिसकी अवधि एक सतयुग के बराबर होती है और यह प्रलय होती है।


(19) एक कल्प में चौदह मन्वन्तर होते हैं, अपनी संध्याओं के साथ; प्रत्येक कल्प के आरम्भ में पंद्रहवीं संध्या/उषा होती है। यह भी सतयुग के बराबर ही होती है।


(20) एक कल्प में, एक हज़ार चतुर्युगी होते हैं और फ़िर एक प्रलय होती है। यह ब्रह्मा का एक दिन होता है। इसके बाद इतनी ही लम्बी रात्रि भी होती है।


(21) इस दिन और रात्रि के आकलन से उनकी आयु एक सौ वर्ष होती है; उनकी आधी आयु निकल चुकी है और शेष में से यह प्रथम कल्प है।


(22) इस कल्प में, छः मनु अपनी संध्याओं समेत निकल चुके, अब सातवें मनु (वैवस्वत: विवस्वान (सूर्य) के पुत्र) का सत्ताइसवां चतुर्युगी बीत चुका है।


(23) वर्तमान में, अट्ठाइसवां चतुर्युगी का कृतयुग बीत चुका है। उस बिन्दु से समय का आकलन किया जाता है।


हिन्दू समय मापन, (काल व्यवहार) का सार निम्न लिखित है:-


▪️नाक्षत्रीय मापन

एक परमाणु = मानवीय चक्षु के पलक झपकने का समय = लगभग 4 सैकिण्ड

एक विघटि = ६ परमाणु = (विघटि) is २४ सैकिण्ड

एक घटि या घड़ी = 60 विघटि = २४ मिनट

एक मुहूर्त = 2 घड़ियां = 48 मिनट

एक नक्षत्र अहोरात्रम या नाक्षत्रीय दिवस = 30 मुहूर्त (दिवस का आरम्भ सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक, ना कि अर्धरात्रि से)


▪️विष्णु पुराण में दिया गया अक अन्य वैकल्पिक पद्धति समय मापन पद्धति अनुभाग, विष्णु पुराण, भाग-१, अध्याय तॄतीय निम्न है:


10 पलक झपकने का समय = 1 काष्ठा

35 काष्ठा= 1 कला

20 कला= 1 मुहूर्त

10 मुहूर्त= 1 दिवस (24 घंटे)

30 दिवस= 1 मास

6 मास= 1 अयन

2 अयन= 1 वर्ष, = १ दिव्य दिवस

छोटी वैदिक समय इकाइयाँ संपादित करें

एक तॄसरेणु = 6 ब्रह्माण्डीय अणु

एक त्रुटि = 3 तॄसरेणु, या सैकिण्ड का 1/1687.5 भाग

एक वेध = 100 त्रुटि.

एक लावा = 3 वेध.

एक निमेष = 3 लावा, या पलक झपकना

एक क्षण = 3 निमेष.

एक काष्ठा = 5 क्षण, = 8 सैकिण्ड

एक लघु =15 काष्ठा, = 2 मिनट

15 लघु = 1 नाड़ी, जिसे दण्ड भी कहते हैं। इसका मान उस समय के बराबर होता है, जिसमें कि छः पल भार के (चौदह आउन्स) के ताम्र पात्र से जल पूर्ण रूप से निकल जाये, जबकि उस पात्र में चार मासे की चार अंगुल लम्बी सूईं से छिद्र किया गया हो। ऐसा पात्र समय आकलन हेतु बनाया जाता है।

2 दण्ड = 1 मुहूर्त

6 या 7 मुहूर्त = 1 याम, या एक चौथाई दिन या रत्रि 

4 याम या प्रहर = 1 दिन या रात्रि


▪️चाँद्र मापन

एक तिथि वह समय होता है, जिसमें सूर्य और चंद्र के बीच का देशांतरीय कोण बारह अंश बढ़ जाता है। तुथियां दिन में किसी भी समय आरम्भ हो सकती हैं और इनकी अवधि उन्नीस से छब्बीस घंटे तक हो सकती है।

एक पक्ष या पखवाड़ा = पंद्रह तिथियां

एक मास = २ पक्ष (पूर्णिमा से अमावस्या तक कृष्ण पक्ष; और अमावस्या से पूर्णिमा तक शुक्ल पक्ष)

एक ॠतु = २ मास

एक अयन = 3 ॠतुएं

एक वर्ष = 2 अयन [6]

ऊष्ण कटिबन्धीय मापन संपादित करें

एक याम = 1½ घंटा

8 याम अर्ध दिवस = दिन या रात्रि

एक अहोरात्र = नाक्षत्रीय दिवस (जो कि सूर्योदय से आरम्भ होता है)

अन्य अस्तित्वों के सन्दर्भ में काल-गणना संपादित करें


▪️पितरों की समय गणना

15 मानव दिवस = एक पितॄ दिवस

30 पितॄ दिवस = 1 पितॄ मास

12 पितॄ मास = 1 पितॄ वर्ष

पितॄ जीवन काल = 100 पितॄ वर्ष= 1200 पितृ मास = 36000 पितॄ दिवस= 18000 मानव मास = 1500 मानव वर्ष


▪️देवताओं की काल गणना

1 मानव वर्ष = एक दिव्य दिवस

30 दिव्य दिवस = 1 दिव्य मास

12 दिव्य मास = 1 दिव्य वर्ष

दिव्य जीवन काल = 100 दिव्य वर्ष= 36000 मानव वर्ष

विष्णु पुराण के अनुसार काल-गणना विभाग, विष्णु पुराण भाग १, तॄतीय अध्याय के अनुसार:


2 अयन (छः मास अवधि, ऊपर देखें) = 1 मानव वर्ष = 


▪️एक दिव्य दिवस

4,000 + 400 + 400 = 4,800 दिव्य वर्ष = 1 कॄत युग

3,000 + 300 + 300 = 3,600 दिव्य वर्ष = 1 त्रेता युग

2,000 + 200 + 200 = 2,400 दिव्य वर्ष = 1 द्वापर युग

1,000 + 100 + 100 = 1,200 दिव्य वर्ष = 1 कलि युग

12,000 दिव्य वर्ष = 4 युग = 1 महायुग (दिव्य युग भी कहते हैं)


▪️ब्रह्मा की काल गणना

1000 महायुग= 1 कल्प = ब्रह्मा का 1 दिवस (केवल दिन) (चार खरब बत्तीस अरब मानव वर्ष; और यहू सूर्य की खगोलीय वैज्ञानिक आयु भी है).

(दो कल्प ब्रह्मा के एक दिन और रात बनाते हैं)


30 ब्रह्मा के दिन = 1 ब्रह्मा का मास (दो खरब 59 अरब 20 करोड़ मानव वर्ष)

12 ब्रह्मा के मास = 1 ब्रह्मा के वर्ष (31 खरब 10 अरब 4 करोड़ मानव वर्ष)

50 ब्रह्मा के वर्ष = 1 परार्ध

2 परार्ध= 100 ब्रह्मा के वर्ष= 1 महाकल्प (ब्रह्मा का जीवन काल)(31 शंख 10 खरब 40अरब मानव वर्ष)

ब्रह्मा का एक दिवस 10,000 भागों में बंटा होता है, जिसे चरण कहते हैं:-


▪️चारों युग

4 चरण (1,728,000 सौर वर्ष) सत युग

3 चरण (1,296,000 सौर वर्ष) त्रेता युग

2 चरण (864,000 सौर वर्ष) द्वापर युग

1 चरण (432,000 सौर वर्ष) कलि युग


यह चक्र ऐसे दोहराता रहता है, कि ब्रह्मा के एक दिवस में 1000 महायुग हो जाते हैं


एक उपरोक्त युगों का चक्र = एक महायुग (43 लाख 20 हजार सौर वर्ष)


श्रीमद्भग्वदगीता के अनुसार "सहस्र-युग अहर-यद ब्रह्मणो विदुः", अर्थात ब्रह्मा का एक दिवस = 1000 महायुग. इसके अनुसार ब्रह्मा का एक दिवस = 4 अरब 32 खरब सौर वर्ष. इसी प्रकार इतनी ही अवधि ब्रह्मा की रात्रि की भी है.


एक मन्वन्तर में 71 महायुग (306,720,000 सौर वर्ष) होते हैं. प्रत्येक मन्वन्तर के शासक एक मनु होते हैं.

प्रत्येक मन्वन्तर के बाद, एक संधि-काल होता है, जो कि कॄतयुग के बराबर का होता है (1,728,000 = 4 चरण) (इस संधि-काल में प्रलय होने से पूर्ण पॄथ्वी जलमग्न हो जाती है.)


एक कल्प में 1,728,000 सौर वर्ष होते हैं, जिसे आदि संधि कहते हैं, जिसके बाद 14 मन्वन्तर और संधि काल आते हैं


▪️ब्रह्मा का एक दिन बराबर है:

(14 गुणा 71 महायुग) + (15 x 4 चरण)

= 994 महायुग + (60 चरण)

= 994 महायुग + (6 x 10) चरण

= 994 महायुग + 6 महायुग

= 1,000 महायुग


▪️पाल्या 

एक पाल्य समय की इकाई है, यह बराबर होती है, भेड़ की ऊन का एक योजन ऊंचा घन बनाने में लगा समय, यदि प्रत्येक सूत्र एक शताब्दी में चढ़ाया गया हो। इसकी दूसरी परिभाषा अनुसार, एक छोटी चिड़िया द्वारा किसी एक वर्ग मील के सूक्ष्म रेशों से भरे कुंए को रिक्त करने में लगा समय, यदि वह प्रत्येक रेशे को प्रति सौ वर्ष में उठाती है।

यह इकाई भगवान आदिनाथ के अवतरण के समय की है। यथार्थ में यह 100,000,000,000,000 पाल्य पहले था।

▪️वर्तमान तिथि 

कोई भी शुभ कार्य करने के पहले हिन्दुओं में जो संकल्प लिया जाता है उसमें भारतीय कालगणना की महानता दृष्टिगत है -

...श्री ब्रह्मणो द्वितीयपर्द्धे श्री श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशति तमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गते ब्रह्मवर्तैकदेशे पुण्यप्रदेशे बौध्दावतारे वर्तमाने यथानाम संवत्सरे (२०५५ सन् १९९८) महामांगल्यप्रदे मासोत्तमे कार्तिकमासे कृष्णपक्षे चतुर्थी तिथियौ दिनांक दिवस (वार) समय शुभयोगे ....

हम वर्तमान में वर्तमान ब्रह्मा के इक्यावनवें वर्ष में सातवें मनु, वैवस्वत मनु के शासन में श्वेतवाराह कल्प के द्वितीय परार्ध में, अठ्ठाईसवें कलियुग के प्रथम वर्ष के प्रथम दिवस में विक्रम संवत २०६४ में हैं। इस प्रकार अबतक पंद्रह शंख पचास खरब वर्ष इस ब्रह्मा को सॄजित हुए हो गये हैं।

वर्तमान कलियुग दिनाँक 17 फरवरी / 18 फरवरी को 3102 ई.पू. में हुआ था, ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार।

क्रमश: