🌞 *गुरु जी की महानता का मैं अकिंचन बखान नहीं कर सकता फिर भी उनके जन्मोत्सव पर दो शब्द लिखने का प्रयास उनकी कृपा से कर रहा हूं, गुरु जी नियामत बख्शे*🌞
*गुरु गोबिन्द सिंह* सिखों के दसवें और अंतिम गुरु थे। श्री गुरू तेग बहादुर जी के बलिदान के उपरान्त 11 नवम्बर सन् 1675 को 10 वें गुरू बने। गुरु जी एक महान योद्धा, चिन्तक, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक नेता थे। सन् 1699 में बैसाखी के दिन उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की जो सिखों के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण दिन माना जाता है।
आपजी का जन्म: पौषशुक्ल सप्तमी संवत् 1723 विक्रमी तदनुसार 22 दिसम्बर 1666- को पटना साहिब में हुआ।
*गुरु साहब का संक्षिप्त जीवन परिचय*
जन्म नाम गोबिन्द राय
जन्मदिन 22 दिसंबर , 1666
जन्मस्थान पटना बिहार, भारत
मृत्यु 7 अक्टूबर 1708 (उम्र 42)
निर्वाण स्थली नांदेड़, महाराष्ट्र, भारत
पदवी सिखों के दसवें गुरु
*प्रसिद्धि का कारण*
दसवें सिख गुरु, सिख खालसा सेना के संस्थापक एवं प्रथम सेनापति
पूर्वाधिकारी- गुरु तेग बहादुर
उत्तराधिकारी- गुरु ग्रंथ साहिब
पंथ- सिख
जीवनसाथी- माता जीतो जी
बच्चे- अजीत सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फतेह सिंह
माता-पिता गुरु तेग बहादुर, माता गूजरी
गुरु गोबिन्द सिंह ने पवित्र (ग्रन्थ) गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया तथा उन्हें गुरु रूप में प्रतिष्ठित किया। बचित्तर नाटक उनकी आत्मकथा है। यही उनके जीवन के विषय में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है। यह दसम ग्रन्थ का एक भाग है। दसम ग्रन्थ (ग्रन्थ), गुरु गोबिन्द सिंह की कृतियों के संकलन का नाम है।
इन्होने अन्याय, अत्याचार और पापों को खत्म करने और सनातन धर्म की रक्षा के लिए मुगलों के साथ 14 युद्ध लड़े। धर्म की रक्षा के लिए समस्त परिवार का बलिदान किया, जिसके लिए उन्हें 'सरबंसदानी' (पूरे परिवार का दानी ) भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त जनसाधारण में वे कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले, आदि कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं।
विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय होने के साथ-साथ गुरु गोविन्द सिंह एक महान लेखक, मौलिक चिन्तक तथा संस्कृत सहित कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रन्थों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे। ५२ कवि और साहित्य-मर्मज्ञ उनके दरबार की शोभा बढ़ाते थे। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे। इसीलिए उन्हें 'संत सिपाही' भी कहा जाता है।
उन्होंने सदा प्रेम, सदाचार और भाईचारे का सन्देश दिया। किसी ने गुरुजी का अहित करने की कोशिश भी की तो उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता, सौम्यता से उसे परास्त कर दिया। गुरुजी की मान्यता थी कि मनुष्य को किसी को डराना भी नहीं चाहिए और न किसी से डरना चाहिए। वे अपनी वाणी में उपदेश देते हैं *_भै काहू को देत नहि, नहि भय मानत आन_*। वे बाल्यकाल से ही सरल, सहज, भक्ति-भाव वाले कर्मयोगी थे। उनकी वाणी में मधुरता, सादगी, सौजन्यता एवं वैराग्य की भावना कूट-कूटकर भरी थी। उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही था कि *"धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की सदैव विजय होती है"*।
*गुरू दास B.R.Ojha 9461205281*
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