मंगलवार, 22 अप्रैल 2025

पोप का निधन

भारत में आज से तीन दिन का राजकीय शोक घोषित
पोप फ्रांसिस के निधन पर भारत सरकार ने देशभर में तीन दिन के राजकीय शोक की घोषणा की है। गृह मंत्रालय ने इसकी जानकारी देते हुए बताया कि महामहिम पोप फ्रांसिस, सर्वोच्च धर्मगुरु का सोमवार, 21 अप्रैल 2025 को निधन हो गया। उनके सम्मान में भारत में तीन दिन का राजकीय शोक मनाया जाएगा। गृह मंत्रालय के अनुसार, राजकीय शोक का पहला चरण दो दिनों का होगा, जो मंगलवार, 22 अप्रैल और बुधवार, 23 अप्रैल को लागू रहेगा।

तीसरा दिन पोप फ्रांसिस के अंतिम संस्कार के दिन मनाया जाएगा। इस दौरान पूरे भारत में उन सभी इमारतों पर राष्ट्रीय ध्वज आधा झुका रहेगा, जहां इसे नियमित रूप से फहराया जाता है। साथ ही, इस अवधि में कोई भी आधिकारिक मनोरंजन कार्यक्रम आयोजित नहीं होगा। पोप फ्रांसिस, जिनका असली नाम जॉर्ज मारियो बर्गोलियो था, मार्च 2013 में पोप चुने गए थे। वह अपने सादगी भरे जीवन, सामाजिक न्याय के प्रति समर्पण और पर्यावरण संरक्षण जैसे मुद्दों पर मुखर रुख के लिए विश्व भर में जाने जाते थे। उनके निधन से न केवल कैथोलिक समुदाय, बल्कि पूरी दुनिया में शोक की लहर है। भारत में भी उनके निधन पर कई नेताओं और संगठनों ने शोक व्यक्त किया है।
     देश में कई पादरियों ने भी उनके निधन पर शोक जताया है। बता दें कि किडनी की बीमारी से जूझ रहे पोप फ्रांसिस का सोमवार को निधन हो गया। वेटिकन ने एक वीडियो संदेश में यह जानकारी दी। बयान में कहा गया था कि रोमन कैथोलिक चर्च के पहले लैटिन अमेरिकी नेता पोप फ्रांसिस का निधन हो गया था। ईसाइयों के सबसे बड़े धर्मगुरु पोप फ्रांसिस 88 वर्ष के थे और वह किडनी की बीमारी से पीड़ित थे। कुछ समय पहले कई दिनों तक वेंटिलेटर पर रहने के बाद वह ठीक होकर घर लौटे थे। पोप फ्रांसिस को हाल ही में डबल निमोनिया की गंभीर बीमारी ने भी जकड़ा था

राजकीय शोक के दौरान क्या-क्या होता है?

1.झंडा आधा झुका दिया जाता है (National Flag at Half Mast):
पूरे देश या राज्य की सरकारी इमारतों पर राष्ट्रीय ध्वज आधा झुकाया जाता है।
केवल स्मरण या श्रद्धांजलि हेतु झंडा झुकाया जाता है, कोई अन्य कार्य नहीं किया जाता।
2.आधिकारिक समारोह और सरकारी कार्यक्रम रद्द:
सभी प्रकार के सरकारी समारोह, सांस्कृतिक, मनोरंजन और उद्घाटन कार्यक्रम स्थगित या रद्द कर दिए जाते हैं।
अगर, कोई सार्वजनिक रूप से निर्धारित कार्यक्रम पहले से तय हो, तो उसे भी टालने का प्रयास किया जाता है।
3.मनोरंजन पर रोक (Entertainment Restrictions):
सिनेमा हॉल, थिएटर और अन्य मनोरंजन से जुड़ी गतिविधियाँ कुछ स्थानों पर बंद रहती हैं।
टेलीविजन और रेडियो चैनल्स भी उस दिन सांस्कृतिक या मनोरंजन कार्यक्रम नहीं दिखाते, बल्कि श्रद्धांजलि से जुड़ी सामग्री प्रसारित करते हैं।
4.सरकारी स्कूल, कॉलेज, ऑफिस:
आमतौर पर सरकारी दफ्तर और स्कूल/कॉलेज खुले रहते हैं, जब तक कि विशेष आदेश न हों।
लेकिन किसी शीर्षस्थ नेता के निधन पर इन्हें भी एक दिन के लिए बंद किया जा सकता है।
5.अंतिम संस्कार में सरकारी सम्मान:
राजकीय शोक की घोषणा के साथ, सरकारी सम्मान के साथ अंतिम संस्कार भी किया जाता है – जैसे 21 तोपों की सलामी, बंदूक salute, तिरंगे में लिपटा पार्थिव शरीर आदि।

गुरुवार, 3 अप्रैल 2025

Food rules of life

*खाना खाने का सही नियम 👇👇👇
चैत्र ( मार्च-अप्रैल) – इस महीने में चने का सेवन करे क्योकि चना आपके रक्त संचार और रक्त को शुद्ध करता है एवं कई बीमारियों से भी बचाता है। चैत्र के महीने में नित्य नीम की 4 – 5 कोमल पतियों का उपयोग भी करना चाहिए इससे आप इस महीने के सभी दोषों से बच सकते है। नीम की पतियों को चबाने से शरीर में स्थित दोष शरीर से हटते है।

वैशाख (अप्रैल – मई)- वैशाख महीने में गर्मी की शुरुआत हो जाती है। बेल का इस्तेमाल इस महीने में अवश्य करना चाहिए जो आपको स्वस्थ रखेगा। वैशाख के महीने में तेल का उपयोग बिल्कुल न करे क्योकि इससे आपका शरीर अस्वस्थ हो सकता है।

ज्येष्ठ (मई-जून) – भारत में इस महीने में सबसे अधिक गर्मी होती है। ज्येष्ठ के महीने में दोपहर में सोना स्वास्थ्य वर्द्धक होता है , ठंडी छाछ , लस्सी, ज्यूस और अधिक से अधिक पानी का सेवन करें। बासी खाना, गरिष्ठ भोजन एवं गर्म चीजो का सेवन न करे। इनके प्रयोग से आपका शरीर रोग ग्रस्त हो सकता है।

अषाढ़ (जून-जुलाई) – आषाढ़ के महीने में आम , पुराने गेंहू, सत्तु , जौ, भात, खीर, ठन्डे पदार्थ , ककड़ी, पलवल, करेला आदि का उपयोग करे व आषाढ़ के महीने में भी गर्म प्रकृति की चीजों का प्रयोग करना आपके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है।

श्रावण (जूलाई-अगस्त) – श्रावण के महीने में हरड का इस्तेमाल करना चाहिए। श्रावण में हरी सब्जियों का त्याग करे एव दूध का इस्तेमाल भी कम करे। भोजन की मात्रा भी कम ले – पुराने चावल, पुराने गेंहू, खिचड़ी, दही एवं हलके सुपाच्य भोजन को अपनाएं।

भाद्रपद (अगस्त-सितम्बर) – इस महीने में हलके सुपाच्य भोजन का इस्तेमाल कर  वर्षा का मौसम् होने के कारण आपकी जठराग्नि भी मंद होती है इसलिए भोजन सुपाच्य ग्रहण करे।  

आश्विन (सितम्बर-अक्टूबर) – इस महीने में दूध , घी, गुड़ , नारियल, मुन्नका, गोभी आदि का सेवन कर सकते है। ये गरिष्ठ भोजन है लेकिन फिर भी इस महीने में पच जाते है क्योकि इस महीने में हमारी जठराग्नि तेज होती है।

कार्तिक (अक्टूबर-नवम्बर) – कार्तिक महीने में गरम दूध, गुड, घी, शक्कर, मुली आदि का उपयोग करे।  ठंडे पेय पदार्थो का प्रयोग छोड़ दे। छाछ, लस्सी, ठंडा दही, ठंडा फ्रूट ज्यूस आदि का सेवन न करे , इनसे आपके स्वास्थ्य को हानि हो सकती है।

अगहन (नवम्बर-दिसम्बर) – इस महीने में ठंडी और अधिक गरम वस्तुओ का प्रयोग न करे।

पौष (दिसम्बर-जनवरी) – इस ऋतू में दूध, खोया एवं खोये से बने पदार्थ, गौंद के लाडू, गुड़, तिल, घी, आलू, आंवला आदि का प्रयोग करे, ये पदार्थ आपके शरीर को स्वास्थ्य देंगे। ठन्डे पदार्थ, पुराना अन्न, मोठ, कटु और रुक्ष भोजन का उपयोग न करे।

माघ (जनवरी-फ़रवरी) – इस महीने में भी आप गरम और गरिष्ठ भोजन का इस्तेमाल कर सकते है। घी, नए अन्न, गौंद के लड्डू आदि का प्रयोग कर सकते है।

फाल्गुन (फरवरी-मार्च) – इस महीने में गुड का उपयोग करे। सुबह के समय योग एवं स्नान का नियम बना ले। चने का उपयोग न करे।
 🙏 बाबूराम ओझा रायसिंहनगर ✍️

सोमवार, 17 फ़रवरी 2025

बीबीसी के नाम पर तानाशाही और अघोषित आपातकाल

BBC के नाम पर तानाशाही और अघोषित आपातकाल की नौटंकी करने वाले कांगियो को अपने मालकिन के बारे जरूर जानना चाहिए 

आपातकाल लगने के बाद इंदिरा गांधी के निशाने पर जयपुर और ग्वालियर की महारानियाँ थीं. संसद में न सिर्फ़ वो विपक्ष की प्रमुख नेताओं में से एक थीं, बल्कि अपने-अपने क्षेत्र के आम लोगों के बीच लोकप्रिय भी थीं.

उनकी राजनीतिक साख़ कम करने के लिए उन्हें राजनीतिक विरोधी के तौर पर नहीं बल्कि आर्थिक अपराधी के तौर पर गिरफ़्तार किया गया था.

राजमाता गायत्री देवी को परेशान करने का सिलसिला आपातकाल की घोषणा से पहले ही शुरू हो चुका था और जयपुर राजघराने के हर घर, महल और दफ़्तर पर आयकर के छापे पड़ने शुरू हो गए थे.

आपातकाल घोषित होने के समय गायत्री देवी की आयु 56 साल थी और उनका मुंबई में इलाज चल रहा था.

जब वो 30 जुलाई, 1975 की रात को अपने दिल्ली के घर पहुंचीं तो पुलिस ने उन्हें विदेशी विनिमय और स्मगलिंग विरोधी कानून के तहत गिरफ़्तार कर लिया.

उनके साथ उनके बेटे कर्नल भवानी सिंह को भी पुलिस ने हिरासत में ले लिया.

उन पर आरोप लगाया गया कि उनके पास विदेश यात्रा से बचे कुछ डॉलर्स हैं जिनका हिसाब उन्होंने सरकार को नहीं दिया है.

दोनों को दिल्ली की तिहाड़ जेल भेज दिया गया.

वहाँ ले जाने से पहले उन्हें स्थानीय पुलिस स्टेशन ले जाया गया.

गायत्री देवी अपनी आत्मकथा 'अ प्रिंसेस रिमेंबर्स' में लिखती हैं, "पुलिस स्टेशन पर हर किसी ने भवानी सिंह को पहचान लिया. वो राष्ट्रपति के बॉडीगार्ड रह चुके थे और उन्हें 1971 की लड़ाई में वीरता के लिए महावीर चक्र मिला था."

उस समय दिल्ली की सारी जेलें उसी तरह भरी हुई थीं जैसे पीक टूरिस्ट सीज़न में होटल भर जाया करते हैं. तिहाड़ जेल के अधीक्षक ने पुलिस अफसर से कुछ समय माँगा ताकि वहाँ हमारे रहने का इंतेज़ाम किया जा सके."

"तीन घंटे बाद जब हम तिहाड़ पहुंचे तो उसने हमारे लिए चाय मंगवाई और हमारे घर फ़ोन कर हमारे बिस्तर मंगवा लिए."

जॉन ज़ुब्रज़िकी राजमाता की जीवनी 'द हाउज़ ऑफ़ जयपुर' में लिखते हैं, "भवानी सिंह को जेल में बाथरूम वाले कमरे में रखा गया जबकि गायत्री देवी को एक बदबूदार कमरा दिया गया था जिसमें एक नल तो लगा था लेकिन उसमें पानी नहीं आता था. महारानी के कमरे में कम्युनिस्ट कार्यकर्ता श्रीलता स्वामिनाथन को भी रखा गया था."

कमरे में सिर्फ़ एक पलंग था जिसे श्रीलता ने महारानी को दे दिया था और वो खुद ज़मीन पर दरी पर सोती थीं. महारानी के रसूख की वजह से उन्हें रोज़ एक सेंसर किया हुआ समाचारपत्र और सुबह की चाय दी जाती थी. शाम को उन्हें अपने बेटे भवानी सिंह के साथ टहलने की इजाज़त थी.

एक कैदी लैला बेगम को उनकी सेवा में लगाया गया था जो उनका कमरा साफ़ करती थी.

15 नवंबर, 1977 को टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपे इंटरव्यू 'राजमाता नरेट्स टेल्स ऑफ़ वेंडेटा' में गायत्री देवी ने कहा था, "पहली रात मैं सो नहीं पाई. मेरी कोठरी के बाहर एक नाला था जिसमें कैदी मल त्याग करते थे. कमरे में कोई पंखा नहीं था और मच्छरों को हमारे ख़ून से कुछ ज़्यादा ही प्यार हो गया था."

"जेल का सारा माहौल मछली बाज़ार जैसा था जहाँ चोर उचक्के और यौनकर्मी एक-दूसरे पर चिल्लाते रहते थे. हमें सी क्लास की श्रेणी दी गई थी
पढ़ने और कढ़ाई करने से आँखें ख़राब हुईं

तिहाड़ में रहने के दौरान महारानी गायत्री देवी के बेटे जगत उन्हें इंग्लैंड से वोग और टैटलर पत्रिका के ताज़ा अंक भेजा करते थे.
उनसे हफ़्ते में दो बार मिलने आने वाले लोग जेल में उनके लिए एक ट्राँजिस्टर रेडियो पहुंचा पाने में सफल हो गए थे.

महारानी इस ट्राँजिस्टर से बीबीसी के समाचार सुना करती थीं.

कूमी कपूर अपनी किताब 'द इमरजेंसी अ पर्सनल हिस्ट्री' में पत्रकार वीरेंद्र कपूर को बताती हैं, "गायत्री जेल में रह रही दूसरी महिलाओं से दूरी बनाकर रखती थीं. वो कभी-कभी उन पर मुस्कुराती थीं, कभी-कभी उनसे बातचीत भी कर लेती थीं लेकिन उनसे कभी घुलती-मिलती नहीं थीं.

एक महीने बाद तिहाड़ जेल के अधिकारियों ने गायत्री देवी को बताया कि ग्वालियर की राजमाता विजयराजे सिंधिया को भी वहाँ लाया जा रहा है और उनको उनके कमरे में ही रखा जाएगा.

राजमाता ने उसका ये कहते हुए विरोध किया कि अगर उनके कमरे में एक और पलंग लगाया गया तो वहाँ खड़े रहने की भी जगह नहीं बचेगी.

गायत्री देवी अपनी आत्मकथा 'द प्रिंसेज़ रिमेंबर्स' में लिखती हैं, "मुझे योगा करने के लिए अपने कमरे में थोड़ी जगह चाहिए थी और मुझे रात में पढ़ने और संगीत सुनने की भी आदत थी. हम दोनों की आदतें भी अलग-अलग थीं. वो अपना अधिक्तर समय पूजा-पाठ में बिताती थीं."

"बहरहाल जेल सुपरिटेंडेंट ने मेरा अनुरोध स्वीकार कर लिया और राजमाता के लिए दूसरे कमरे की व्यवस्था की गई लेकिन चूँकि सितंबर की उमस भरी गर्मी थी, राजमाता ने मुझसे पूछा क्या वो मेरे कमरे से लगे बरामदे में सो सकती हैं? मैंने एक पर्दा लगवा कर अपने बरामदे में उनके लिए पलंग बिछवाई."

3 सितंबर, 1975 के ग्वालियर की राजमाता विजयराजे सिंधिया को तिहाड़ जेल लाया गया.

उन पर भी आर्थिक अपराध की धारा लगाई गई. उनके सारे बैंक खाते सील कर दिए गए. एक समय नौबत यहाँ तक आ गई कि उन्हें अपनी संपत्ति बेचकर या दोस्तों से उधार लेकर अपना ख़र्च चलाना पड़ा. दोस्तों से उधार लेना भी इतना आसान नहीं था, क्योंकि जो भी इमरजेंसी पीड़ित की मदद करता, उसके ऊपर प्रशासन का कहर टूट पड़ता.

सिंधिया अपनी आत्मकथा 'प्रिंसेज़' में लिखती हैं, "तिहाड़ में मैं क़ैदी नंबर 2265 थी. जब मैं तिहाड़ पहुंची तो वहाँ जयपुर की महारानी गायत्री देवी ने मेरा स्वागत किया. हम दोनों ने सिर झुकाकर और हाथ जोड़ कर एक दूसरे का अभिवादन किया."

उन्होंने चिंतित होकर मुझसे पूछा, "आप यहाँ कैसे पहुंच गईं? ये बड़ी ही ख़राब जगह है. मेरे कमरे के साथ लगे बाथरूम में कोई नल नहीं था. टॉयलेट के नाम पर सिर्फ़ एक गड्ढा बना हुआ था. जेल का सफ़ाईकर्मी दिन में दो बार पानी की बाल्टी लेकर आता था और गड्ढे में पानी डालकर उसे साफ़ करने की कोशिश करता था."

विजयराजे सिंधिया आगे लिखती है, "गायत्री देवी और मैं पूर्व महारानियाँ भले ही रही हों लेकिन तिहाड़ जेल की अपनी रानी एक कैदी थी जिसके खिलाफ़ 27 मुक़दमें चल रहे थे, जिसमें से चार हत्या के थे. वो अपने ब्लाउज़ में एक ब्लेड लेकर चलती थी और धमकी दिया करती थी कि जो भी उसके रास्ते में आएगा वो ब्लेड से उसका चेहरा बिगाड़ देगी. उसके पास गंदी गालियों का अच्छा भंडार था जिसे वो बिना झिझक इस्तेमाल करती थी."

गायत्री देवी को वहाँ आए दो महीने बीत चुके थे, इसलिए हर सप्ताह उनसे मिलने लोग आ सकते थे. उनके ज़रिए गायत्री देवी जेल के अंदर बेडमिंटन रैकेट, एक फ़ुटबॉल और क्रिकेट के दो बल्ले और कुछ गेंदें मंगवाने में सफल हो गईं. इसके बाद उन्होंने जेल में रह रहे बच्चों को खेलना सिखाना शुरू कर दिया. लेकिन जेल में रहने की परिस्थितियाँ बहुत बुरी थीं.

विजयराजे ने लिखा था, "कमरे में हर समय बदबू फैली रहती थी. खाना खाते समय हम अपना एक हाथ भिनभिनाती हुई मक्खियों को दूर करने में इस्तेमाल करते थे. जब रात में मक्खियाँ सोने चली जाती थीं तो उनका स्थान मच्छर और दूसरे कीड़े मकोड़े ले लेते थे."

"पहले महीने मुझे एक भी व्यक्ति से मिलने नहीं दिया गया. मेरी बेटियों को पता ही नहीं था कि मुझे किस जेल में रखा गया है. रात में मेरे कमरे में एक लाइट जलती थी जिसके बल्ब के ऊपर कोई शेड नहीं था.

इस बीच गायत्री देवी का दस किलो वज़न कम हो गया था और उन्हें लो ब्लड प्रेशर रहने लगा था.

कूमी कपूर अपनी किताब 'द इमरजेंसी अ पर्सनल हिस्ट्री' में लिखती हैं, "गायत्री देवी के मुँह में छाले हो गए थे. जेल प्रशासन ने उनके निजी दंतचिकित्सक को उन्हें देखने की इजाज़त नहीं दी. कई सप्ताह बाद जाकर उन्हें दिल्ली के मशहूर दंतचिकित्सक डॉक्टर बेरी के कर्ज़न रोड स्थित क्लीनिक में ऑपरेशन करवाने की अनुमति मिली."

बाद में उन्हें जेल के डाक्टरों की सलाह पर दिल्ली के जीबी पंत अस्पताल में भर्ती कराया गया था. वहाँ पहली बार पता चला कि गायत्री देवी के गॉल ब्लैडर में पथरी भी है. लेकिन उन्होंने अपने परिवारजनों के बिना अस्पताल में ऑपरेशन करवाने से इनकार कर दिया.

गायत्री देवी ने अपनी आत्मकथा में लिखा, "पंत अस्पताल में बिताई गई पहली रात बहुत डरावनी थी. मेरे कमरे में बड़े-बड़े चूहे घूम रहे थे. मेरे कमरे के बाहर तैनात संतरी उन्हें भगाने की कोशिश कर रहे थे. उनके बूटों की आवाज़ दूसरे मरीज़ों को सोने नहीं दे रही थी. अगले दिन डॉक्टर पद्मावती ने मुझे बाथरूम के साथ जुड़े एक साफ़ सुथरे कमरे में शिफ़्ट कर दिया.

"अगस्त, 1975 में गायत्री देवी और उनके बेटे भवानी सिंह ने स्वास्थ्य आधार पर सरकार से जेल से रिहा किए जाने का अनुरोध किया था. उस समय के वित्त मामलों के राज्य मंत्री प्रणव मुखर्जी ने वो पत्र उन्हें रिहा करने की सिफ़ारिश के साथ इंदिरा गाँधी को भेज दिया था लेकिन प्रधानमंत्री ने गायत्री देवी और भवानी सिंह के अनुरोध को स्वीकार नहीं किया था."

उधर लंदन में लॉर्ड माउंटबेटन ने ब्रिटेन की महारानी पर ज़ोर डालना शुरू कर दिया कि वो गायत्री देवी की रिहाई के लिए इंदिरा गाँधी को पत्र लिखें.

जॉन ज़ुब्रज़िकी गायत्री देवी की जीवनी में लिखते हैं, "दिल्ली स्थित ब्रिटिश उच्चायोग की राय थी कि ब्रिटिश राज परिवार को इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये उनकी नज़र में भारत का आँतरिक मामला था. उनका मानना था कि अगर ऐसा प्रयास किया जाता है तो इस बात की संभावना बहुत कम है कि इंदिरा गाँधी उसे मानेंगी."
जयपुर की महारानी गायत्री देवी और महाराजा मान सिंह द्वितीय ब्रितानी महारानी एलिजाबेथ द्वितीय और उनके पति प्रिंस फिलिप के साथ

गायत्री देवी ने इंदिरा को लिखा पत्र
आख़िर गायत्री देवी के सब्र का बाँध टूट गया और उन्होंने अपनी रिहाई के लिए इंदिरा गाँधी को सीधे चिट्ठी लिख डाली.

उन्होंने लिखा, "अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष की समाप्ति के मौके पर अपने देश की बेहतरी के लिए मैं आपको और आपके कार्यक्रमों का समर्थन करने का आश्वासन देती हूँ."

उन्होंने ये भी लिखा कि वो राजनीति से संन्यास ले रही हैं और चूँकि स्वतंत्र पार्टी वैसे भी समाप्त हो चुकी है और उनका किसी दूसरे दल की सदस्य बनने का इरादा नहीं है, इसलिए मुझे रिहा कर दिया जाए. अगर इसके लिए आपकी कोई और शर्त है तो मैं उसे भी मानने के लिए तैयार हूँ.

सरकार की पहली शर्त थी कि गायत्री देवी और उनके बेटे अपनी गिरफ़्तारी को चुनौती देने वाली याचिकाओं को वापस लें. उन्होंने इस शर्त को मानने में कोई देरी नहीं की. 11 जनवरी, 1976 को उनकी रिहाई के आदेश पर दस्तख़त हुए. उनकी बहन मेनका उनको अस्पताल से लेकर तिहाड़ जेल गईं जहाँ से उन्होंने अपना सामान उठाया. वहाँ उन्होंने कुल 156 रातें बिताईं थीं."

"वहाँ उनके साथ रह रहे कैदियों और ग्वालियर की राजमाता ने उन्हें विदाई दी. वो दिल्ली में औरंगज़ेब रोड स्थित अपने निवास पर वापस आईं. दो दिन बाद वहाँ से वो कार से जयपुर गईं जहाँ सार्वजनिक जगह पर भीड़ जमा होने पर प्रतिबंध होने के बावजूद करीब 600 लोग उनके स्वागत में खड़े थे. उसके बाद वो बंबई गईं जहाँ उनका गॉल ब्लैडर में पथरी का आपरेशन हुआ."

उधर विजयराजे सिंधिया की बेटी ऊषा बहुत मशक्कत के बाद इंदिरा गांधी से मिलने में सफल हो गईं.

जब उन्होंने अपनी माँ को रिहा करने का अनुरोध किया तो इंदिरा गाँधी ने कहा कि उनको राजनीतिक कारणों से नहीं बल्कि आर्थिक अपराधों के लिए गिरफ़्तार किया गया है.

जेल में रहने की परिस्थितियाँ बहुत ख़राब थीं. लेकिन जेल में उनके मनोरंजन की भी व्यवस्था रहती थी.

विजयराजे सिंधिया लिखती हैं, "एक दिन महिला कैदियों का एक समूह मेरे मनोरंजन के लिए गाने बजाने का कार्यक्रम लेकर आया. इसमें वो ताज़ा फ़िल्मों के गाने कोरस में गाती थीं और उसे 'कैबरे' कहती थीं. मैंने उन्हें सलाह दी कि अगर वो इसकी जगह भजन गाएं तो मुझे ज़्यादा अच्छा लगेगा. फिर वो मेरी फ़रमाइश पर भजन गाने लगीं. लेकिन उन्हें ये समझ नहीं आया कि कोई 'कैबरे' की जगह भजन को कैसे पसंद कर सकता है? बाद में वो मुझसे कहने लगीं, 'ठीक है भजन पहले, लेकिन उसके बाद 'कैबरे.''
कुछ दिनों बाद विजयराजे सिंधिया बीमार पड़ गईं और उन्हें इलाज के लिए दिल्ली के एम्स अस्पताल में भर्ती कराया गया.

सिंधिया लिखती हैं, "मुझे एक प्राइवेट रूम में रखा गया और बाहर एक संतरी बैठा दिया गया. किसी को मुझसे मिलने की इजाज़त नहीं थी. एक दिन देखती क्या हूँ कि एक आगंतुक ज़बरदस्ती मेरे कमरे में घुस गया."

"वो कश्मीर के मुख्यमंत्री शेख़ अब्दुल्ला थे जिनका खुद का एम्स में इलाज चल रहा था. ये एक विचित्र संयोग था. मुझे 12 साल पुरानी बात याद आ गई जब वो कैदी हुआ करते थे और मैं उन्हें देखने गई थी. एक सुबह मुझे बताया गया कि मेरे ख़राब स्वास्थ्य के कारण मुझे पेरोल पर छोड़ा जा रहा हैं."

जब सिंधिया के बाहर निकलने का समय आया तो महिला कैदियों ने जेल के अंदरूनी गेट के दोनों ओर खड़े होकर उन पर फूल बरसाए. जब विजयराजे सिंधिया जेल के बाहर निकलीं तो उनकी तीनों बेटियाँ उनका इंतज़ार कर रही थीं. वो मुस्कुरा रही थीं लेकिन साथ ही उनकी आँखों में आँसू भी थे.

गुरुवार, 27 जून 2024

नालंदा विश्वविद्यालय का इतिहास

नालंदा विश्वविद्यालय का इतिहास बेहद समृद्ध और गौरवशाली है, और इसके कुछ अनजाने पहलू हैं जो बहुत कम लोग जानते हैं:

1. संस्थापक और प्रारंभिक काल:
   नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना गुप्त सम्राट कुमारगुप्त प्रथम ने 5वीं शताब्दी में की थी। हालांकि, बहुत कम लोग जानते हैं कि इस विश्वविद्यालय की नींव की प्रेरणा महान विद्वान और बौद्ध भिक्षु शीलभद्र से मिली थी, जिन्होंने इसका प्रारंभिक स्वरूप तैयार किया।

2. बौद्ध धर्म का केंद्र:
   नालंदा केवल भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के बौद्ध धर्म के अध्ययन और अनुसंधान का एक प्रमुख केंद्र था। यहां पर कई महान बौद्ध विद्वान, जैसे शांतरक्षित, धर्मपाल और अति प्रसिद्ध यात्री ह्वेन त्सांग (ह्वानसांग) ने अध्ययन और शिक्षण किया।

3. पुस्तकालय और शिक्षा प्रणाली:
   नालंदा में एक विशाल पुस्तकालय था जिसे "धर्मगंज" कहा जाता था। इसमें तीन भाग थे - रत्नसागर, रत्नोदधि, और रत्नरंजक। कहा जाता है कि इस पुस्तकालय में लाखों पांडुलिपियाँ थीं, और इसे जलने में कई महीनों का समय लगा जब तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने 12वीं शताब्दी में इसे नष्ट किया।

4. बहु-विषयक अध्ययन:
   नालंदा विश्वविद्यालय में केवल बौद्ध धर्म ही नहीं, बल्कि अन्य विषय जैसे गणित, खगोलशास्त्र, चिकित्सा, तर्कशास्त्र, और वेदों का भी अध्ययन होता था। यह विश्वविद्यालय एक बहु-विषयक शिक्षा प्रणाली का उदाहरण था, जो अपने समय से काफी आगे थी।

5. अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा:
   नालंदा की प्रतिष्ठा इतनी थी कि यह विभिन्न देशों से छात्रों और विद्वानों को आकर्षित करता था। तिब्बत, चीन, कोरिया, जापान, मंगोलिया, तुर्की, श्रीलंका और दक्षिण पूर्व एशिया के छात्र यहां अध्ययन करने आते थे। ह्वेन त्सांग और इत्सिंग जैसे चीनी यात्रियों ने नालंदा में बिताए अपने समय का विस्तृत वर्णन किया है, जिससे हमें उस समय की शिक्षा और संस्कृति का ज्ञान मिलता है।

6. नालंदा का पतन:
   12वीं शताब्दी में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी के आक्रमण के बाद नालंदा विश्वविद्यालय को भारी नुकसान हुआ और इसे जला दिया गया। यह कहा जाता है कि खिलजी ने यह कदम इसलिए उठाया क्योंकि वह बौद्ध धर्म के इस प्रमुख केंद्र को नष्ट करना चाहता था।

नालंदा विश्वविद्यालय का इतिहास न केवल शिक्षा और ज्ञान का प्रतीक है, बल्कि यह भारतीय सांस्कृतिक धरोहर और विश्व विरासत का भी महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसका पुनर्जागरण और संरक्षण आज के समय में भी महत्वपूर्ण है ताकि आने वाली पीढ़ियाँ इसकी महानता और गौरव को जान सकें।

सुभद्रा कुमारी चौहान जी की वीर रस पूर्ण कालजयी कविता झांसी वाली रानी

सुभद्रा कुमारी चौहान जी की वीर रस पूर्ण कालजयी कविता 

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी 
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी 
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी, 
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी, 
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी, 
बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।

वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार, 
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार, 
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार, 
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़। 

महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ 
हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में
हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में, 
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में, 
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में, 
सुघट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आयी थी झांसी में।

चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई, 
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई, 
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई, 
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।

निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया
बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया, 
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया, 
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया, 
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया। 

अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया
अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया, 
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया, 
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया, 
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया। 

रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ 

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात
छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात, 
कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात, 
उदैपुर, तंजौर, सतारा,कर्नाटक की कौन बिसात? 
जब कि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात। 

बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
रानी रोयीं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार
रानी रोयीं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार, 
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार, 
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार, 
'नागपुर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'। 

यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान
कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान, 
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान, 
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान, 
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान। 

हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी
महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी, 
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी, 
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी, 
मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी, 

जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम
इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम, 
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम, 
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम, 
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम। 

लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी
इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में
इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में, 
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में, 
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में, 
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वंद असमानों में। 

ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार
रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार, 
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार, 
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार, 
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार। 

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी
विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी, 
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी, 
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी, 
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी। 

पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार
तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार, 
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार, 
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार, 
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार। 

घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी
रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी, 
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी, 
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी, 
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी, 

दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी
जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी, 
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी, 
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी, 
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी। 

तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

मंगलवार, 16 जनवरी 2024

गुरु गोबिन्द सिंह जन्मोत्सव

 🌞 *गुरु जी की महानता का मैं अकिंचन बखान नहीं कर सकता फिर भी उनके जन्मोत्सव पर दो शब्द लिखने का प्रयास उनकी कृपा से कर रहा हूं, गुरु जी नियामत बख्शे*🌞


*गुरु गोबिन्द सिंह*  सिखों के दसवें और अंतिम गुरु थे। श्री गुरू तेग बहादुर जी के बलिदान के उपरान्त 11 नवम्बर सन् 1675 को 10 वें गुरू बने। गुरु जी एक महान योद्धा, चिन्तक, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक नेता थे। सन् 1699 में बैसाखी के दिन उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की जो सिखों के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण दिन माना जाता है। 

आपजी का जन्म: पौषशुक्ल सप्तमी संवत् 1723 विक्रमी तदनुसार 22 दिसम्बर 1666- को पटना साहिब में हुआ।

*गुरु साहब का संक्षिप्त जीवन परिचय* 

जन्म नाम  गोबिन्द राय 

जन्मदिन  22 दिसंबर , 1666

जन्मस्थान पटना बिहार, भारत

मृत्यु   7 अक्टूबर 1708 (उम्र 42)

निर्वाण स्थली नांदेड़, महाराष्ट्र, भारत

पदवी   सिखों के दसवें गुरु

*प्रसिद्धि का कारण*

दसवें सिख गुरु, सिख खालसा सेना के संस्थापक एवं प्रथम सेनापति

पूर्वाधिकारी-  गुरु तेग बहादुर

उत्तराधिकारी-  गुरु ग्रंथ साहिब

पंथ-   सिख

जीवनसाथी-  माता जीतो जी 

बच्चे- अजीत सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फतेह सिंह

माता-पिता  गुरु तेग बहादुर, माता गूजरी

गुरु गोबिन्द सिंह ने पवित्र (ग्रन्थ) गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया तथा उन्हें गुरु रूप में प्रतिष्ठित किया। बचित्तर नाटक उनकी आत्मकथा है। यही उनके जीवन के विषय में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है। यह दसम ग्रन्थ का एक भाग है। दसम ग्रन्थ (ग्रन्थ), गुरु गोबिन्द सिंह की कृतियों के संकलन का नाम है।


इन्होने अन्याय, अत्याचार और पापों को खत्म करने और सनातन धर्म की रक्षा के लिए मुगलों के साथ 14 युद्ध लड़े। धर्म की रक्षा के लिए समस्त परिवार का बलिदान किया, जिसके लिए उन्हें 'सरबंसदानी' (पूरे परिवार का दानी ) भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त जनसाधारण में वे कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले, आदि कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं।


विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय होने के साथ-साथ गुरु गोविन्द सिंह एक महान लेखक, मौलिक चिन्तक तथा संस्कृत सहित कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रन्थों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे। ५२ कवि और साहित्य-मर्मज्ञ उनके दरबार की शोभा बढ़ाते थे। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे। इसीलिए उन्हें 'संत सिपाही' भी कहा जाता है।


उन्होंने सदा प्रेम, सदाचार और भाईचारे का सन्देश दिया। किसी ने गुरुजी का अहित करने की कोशिश भी की तो उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता, सौम्यता से उसे परास्त कर दिया। गुरुजी की मान्यता थी कि मनुष्य को किसी को डराना भी नहीं चाहिए और न किसी से डरना चाहिए। वे अपनी वाणी में उपदेश देते हैं *_भै काहू को देत नहि, नहि भय मानत आन_*। वे बाल्यकाल से ही सरल, सहज, भक्ति-भाव वाले कर्मयोगी थे। उनकी वाणी में मधुरता, सादगी, सौजन्यता एवं वैराग्य की भावना कूट-कूटकर भरी थी। उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही था कि *"धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की सदैव विजय होती है"*।

*गुरू दास B.R.Ojha 9461205281*

रविवार, 9 अप्रैल 2023

हिजरी ईस्वी सनातन पंचांग की विवेचना

 मेरे सभी चाहने वालों को सादर प्रणाम अभिनन्दन 🙏🙏

आज मैं अपनी समझ और विवेक से सनातन पंचांग तथा मुस्लिम व ईसाई पंचांगों का विश्लेषण प्रस्तुत कर रहा हूं, आशा है आपको अवश्य पसंद आएगा, यदि कोई त्रुटि हो तो सुधारने का सुझाव दें और लेख कैसा लगा अवगत करवाने का श्रम करें-


 हिजरी या इस्लामी पंचांग को (अरबी में: अत-तक्वीम-हिज़री; फारसी में : ‎'तकवीम-ए-हिज़री-ये-क़मरी) जिसे हिजरी कालदर्शक भी कहते हैं। यह एक चंद्र कालदर्शक है, जो न सिर्फ मुस्लिम देशों में प्रयोग होता है बल्कि इसे पूरे विश्व के मुस्लिम भी इस्लामिक धार्मिक पर्वों को मनाने का सही समय जानने के लिए प्रयोग करते हैं। यह चंद्र-कालदर्शक है अर्थात चन्द्र की कला यानि गति (चन्द्र मास) पर आधारित है, जिसमें वर्ष में बारह मास, एवं 354 या 355 दिवस होते हैं और मास 29/30 दिन का होता है वो भी अस्थाई यानि प्रत्येक मास चन्द्रमा के दिखने पर निर्धारित होता है कि मास 29 या 30 दिन का होगा। 


इस्लामी महीनों के नाम

1- मुहरम  (पूर्ण नाम: मुहरम उल-हराम)

2- सफ़र  (पूर्ण नाम: सफर उल-मुज़फ्फर)

3- रबी अल-अव्वल (रबी उणन्नुर्) - मीलाद उन-नबी - ईद ए मीलाद 

4- रबी अल-थानी (या रबी अल-थानी, रबी अल-आखिर)

5- जमाद अल-अव्वल या जमादि उल अव्वल (जुमादा I) 

6- जमाद अल-थानी या जमादि उल थानी या जमादि उल आखिर (या जुमादा अल-आखीर) (जुमादा II) 

7- रज्जब या रजब (पूर्ण नाम: रज्जब अल-मुरज्जब)

8- शआबान  (पूर्ण नाम: शाअबान अल-मुआज़म) या साधारण नाम शाबान

9- रमजा़न या रमदान (पूर्ण नाम: रमदान अल-मुबारक)

10- शव्वाल (पूर्ण नाम: शव्वाल उल-मुकरर्म)

11- ज़ु अल-क़ादा या ज़ुल क़ादा 

12- ज़ु अल-हज्जा या ज़ुल हज्जा 

       इन सभी महीनों में, रमजान का महीना, सबसे आदरणीय माना जाता है। मुस्लिम लोगों को इस महीने में पूर्ण सादगी से रहना होता है।


 👉  वहीं दूसरी तरफ अंग्रेजी अर्थात ईसाइ कैलेंडर सूर्य की गति ( सौर मास) पर आधारित होता है और इसमें 365 दिन होते हैं तथा फरवरी के अलावा सभी महीने 30/31 दिन के होते हैं जिनके दिन निर्धारित है।


👉  चूंकि हिजरी कैलेंडर सौर कालदर्शक से 11 दिवस छोटा है इसलिए इस्लामी धार्मिक तिथियाँ, जो कि इस कालदर्शक के अनुसार स्थिर तिथियों पर होतीं हैं, परंतु हर वर्ष पिछले सौर कालदर्शक से 11 दिन पीछे हो जाती हैं। इसे हिज्रा या हिज्री भी कहते हैं, क्योंकि इसका पहला वर्ष वह वर्ष है जिसमें कि हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम"  की मक्का शहर से मदीना की ओर हिज्ऱत (प्रवास) हुई थी। 


👉   इन दोनों का कालचक्र 32/33 वर्षों बाद मेल करता है अर्थात जैसे इस बार शबे बारात 7 मार्च 2023 को थी, 2024 में 24 या 25 फरवरी को होगी। यानि पुनः शबे बारात 7 मार्च को 32 या 33 वर्षों बाद आएगी। 


👉   इन दोनों के विपरीत सनातन पंचांग में चन्द्र और सौर दोनों मासों का संगम है। संक्रांति सौर मास व तिथियां चन्द्र मास की प्रतीक है इस कारण सनातन पंचांग में हर तीसरा वर्ष 13 मास  (अधिक मास) का होता है जो  दोनों के अन्तर को बराबर कर देता है। यही कारण है कि हर वर्ष मकर संक्रान्ति 14 जनवरी को ही होती है तथा प्रत्येक त्यौंहार हर तीसरे वर्ष उसी तारीख के आस पास आता है जैसे 2020 में दीपावली 14 नवंबर को थी, 2021 में  4 नवंबर को व 2022 में 24 अक्टूबर को तथा 2023 में पुनः 12 नवंबर को होगी। 

     सनातन पंचांग में तिथियों का घटना-बढना चन्द्रमा की कलाओं के घटने-बढ़ने के कारण होता है। शुक्ल पक्ष की अष्टमी से कृष्ण पक्ष की अष्टमी तक कलाएं बढ़ती है और उसके बाद घटनी शुरू हो जाती है। इसी से तिथियों के मान की घटा-बढी 1 से सवा घंटा तक हो जाती है। इसमें जब कोई तिथि सवा घंटा तक घट गई और उसने दोनों दिन सूर्योदय का स्पर्श नहीं किया यानि सूर्योदय के बाद शुरू हुईं और अगले दिन के सूर्योदय से पूर्व खतम हो जाती है तो इसे तिथि का क्षय या टूटना कहते हैं इसके विपरीत सवा घंटे तक बढ़ जाए और दो सूर्योदय स्पर्श करने के कारण तिथि का दो होना या बढ़ना कहते हैं। सनातन पंचांग में तिथि ओर वार सूर्योदय से माना जाता है (जबकि ईस्वी सन् में रात के बारह बजे से)  

🙏🙏 हर हर महादेव  🙏🙏

🙏🙏जय जय श्री राम🙏🙏

बाबूराम ओझा

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