. एक बार राजा परीक्षित आखेट हेतु वन में गये। वन्य पशुओं के पीछे दौड़ने के कारण वे प्यास से व्याकुल हो गये तथा जलाशय की खोज में इधर उधर घूमते घूमते वे शमीक ऋषि के आश्रम में पहुँच गये। वहाँ पर शमीक ऋषि नेत्र बंद किये हुये तथा शान्तभाव से एकासन पर बैठे हुये ब्रह्मध्यान में लीन थे। राजा परीक्षित ने उनसे जल माँगा किन्तु ध्यानमग्न होने के कारण शमीक ऋषि ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। सिर पर स्वर्ण मुकुट पर निवास करते हुये कलियुग के प्रभाव से राजा परीक्षित को प्रतीत हुआ कि यह ऋषि ध्यानस्थ होने का ढोंग कर के मेरा अपमान कर रहा है। उन्हें ऋषि पर बहुत क्रोध आया। उन्होंने अपने अपमान का बदला लेने के उद्देश्य से पास ही पड़े हुये एक मृत सर्प को अपने धनुष की नोंक से उठा कर ऋषि के गले में डाल दिया और अपने नगर वापस आ गये।
शमीक ऋषि तो ध्यान में लीन थे उन्हें ज्ञात ही नहीं हो पाया कि उनके साथ राजा ने क्या किया है किन्तु उनके पुत्र ऋंगी ऋषि को जब इस बात का पता चला तो उन्हें राजा परीक्षित पर बहुत क्रोध आया। ऋंगी ऋषि ने सोचा कि यदि यह राजा जीवित रहेगा तो इसी प्रकार ब्राह्मणों का अपमान करता रहेगा। इस प्रकार विचार करके उस ऋषिकुमार ने कमण्डल से अपनी अंजुली में जल ले कर तथा उसे मन्त्रों से अभिमन्त्रित करके राजा परीक्षित को यह श्राप दे दिया कि जा तुझे आज से सातवें दिन तक्षक सर्प डसेगा। कुछ समय बाद शमीक ऋषि के समाधि टूटने पर उनके पुत्र ऋंगी ऋषि ने उन्हें राजा परीक्षित के कुकृत्य और अपने श्राप के विषय में बताया। श्राप के बारे में सुन कर शमीक ऋषि को बहुत दुःख हुआ और उन्होंने कहा- "अरे मूर्ख ! तूने घोर पाप कर डाला। जरा सी गलती के लिये तूने उस भगवत्भक्त राजा को घोर श्राप दे डाला।
राजगृह में पहुँच कर जब राजा परीक्षित ने अपना मुकुट उतारा तो कलियुग का प्रभाव समाप्त हो गया और ज्ञान की पुनः उत्पत्ति हुई। वे सोचने लगे कि मैने घोर पाप कर डाला है। निरपराध ब्राह्मण के कंठ में मरे हुये सर्प को डाल कर मैंने बहुत बड़ा कुकृत्य किया है। इस प्रकार वे पश्चाताप कर रहे थे कि ऋषि शमीक का भेजा हुआ एक शिष्य ने आकर उन्हें बताया कि ऋषिकुमार ने आपको श्राप दिया है कि आज से सातवें दिन तक्षक सर्प आपको डस लेगा।
राजा परीक्षित ने अपने जीवन के शेष सात दिन को ज्ञान प्राप्ति और भगवत्भक्ति में व्यतीत करने का संकल्प कर लिया। अपने समर्थ पुत्र जनमेजय का राज्याभिषेक कर दिया और समस्त राजसी वस्त्राभूषणों को त्यागकर तथा केवल चीर वस्त्र धारण कर गंगा के तट पर बैठ गये। अपनी समस्त आसक्तियों को त्याग कर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की भक्ति में स्वयं को लीन कर लिया। उसी समय वहाँ पर व्यास ऋषि के पुत्र, जन्म मृत्यु से रहित परमज्ञानी श्री शुकदेव जी पधारे। समस्त ऋषियों सहित राजा परीक्षित उनके सम्मान में उठ कर खड़े हो गये, और उन्हें प्रणाम किया। उसके बाद अर्ध्य, पाद्य तथा माला आदि से सूर्य के समान प्रकाशमान श्री शुकदेव जी की पूजा की और बैठने के लिये उच्चासन प्रदान किया। उनके बैठने के बाद अन्य ऋषि भी अपने अपने आसन पर बैठ गये। सभी के आसन ग्रहण करने के पश्चात् राजा परीक्षित ने मधुर वाणी में कहा - "हे ब्रह्मरूप योगेश्वर! हे महाभाग! भगवान नारायण के सम्मुख आने से जिस प्रकार दैत्य भाग जाते हैं उसी प्रकार आपके पधारने से महान पाप भी अविलंब भाग खड़े होते हैं। आप जैसे योगेश्वर के दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है पर आपने स्वयं मेरी मृत्यु के समय पधार कर मुझ पापी को दर्शन देकर मुझे मेरे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दिया है। आप योगियों के भी गुरु हैं, आपने परम सिद्धि प्राप्त की है। अतः कृपा करके यह बताइये कि मरणासन्न प्राणी के लिये क्या कर्तव्य है ? शुकदेव जी ने उन्हें श्रीमद्भागवत कथा सुना कर उनके मन में उठ रहे सभी प्रश्नों का समाधान किया। शुकदेवजी के सानिध्य से परिक्षित को भगवद् प्राप्ति हुई।
शमीक ऋषि तो ध्यान में लीन थे उन्हें ज्ञात ही नहीं हो पाया कि उनके साथ राजा ने क्या किया है किन्तु उनके पुत्र ऋंगी ऋषि को जब इस बात का पता चला तो उन्हें राजा परीक्षित पर बहुत क्रोध आया। ऋंगी ऋषि ने सोचा कि यदि यह राजा जीवित रहेगा तो इसी प्रकार ब्राह्मणों का अपमान करता रहेगा। इस प्रकार विचार करके उस ऋषिकुमार ने कमण्डल से अपनी अंजुली में जल ले कर तथा उसे मन्त्रों से अभिमन्त्रित करके राजा परीक्षित को यह श्राप दे दिया कि जा तुझे आज से सातवें दिन तक्षक सर्प डसेगा। कुछ समय बाद शमीक ऋषि के समाधि टूटने पर उनके पुत्र ऋंगी ऋषि ने उन्हें राजा परीक्षित के कुकृत्य और अपने श्राप के विषय में बताया। श्राप के बारे में सुन कर शमीक ऋषि को बहुत दुःख हुआ और उन्होंने कहा- "अरे मूर्ख ! तूने घोर पाप कर डाला। जरा सी गलती के लिये तूने उस भगवत्भक्त राजा को घोर श्राप दे डाला।
राजगृह में पहुँच कर जब राजा परीक्षित ने अपना मुकुट उतारा तो कलियुग का प्रभाव समाप्त हो गया और ज्ञान की पुनः उत्पत्ति हुई। वे सोचने लगे कि मैने घोर पाप कर डाला है। निरपराध ब्राह्मण के कंठ में मरे हुये सर्प को डाल कर मैंने बहुत बड़ा कुकृत्य किया है। इस प्रकार वे पश्चाताप कर रहे थे कि ऋषि शमीक का भेजा हुआ एक शिष्य ने आकर उन्हें बताया कि ऋषिकुमार ने आपको श्राप दिया है कि आज से सातवें दिन तक्षक सर्प आपको डस लेगा।
राजा परीक्षित ने अपने जीवन के शेष सात दिन को ज्ञान प्राप्ति और भगवत्भक्ति में व्यतीत करने का संकल्प कर लिया। अपने समर्थ पुत्र जनमेजय का राज्याभिषेक कर दिया और समस्त राजसी वस्त्राभूषणों को त्यागकर तथा केवल चीर वस्त्र धारण कर गंगा के तट पर बैठ गये। अपनी समस्त आसक्तियों को त्याग कर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की भक्ति में स्वयं को लीन कर लिया। उसी समय वहाँ पर व्यास ऋषि के पुत्र, जन्म मृत्यु से रहित परमज्ञानी श्री शुकदेव जी पधारे। समस्त ऋषियों सहित राजा परीक्षित उनके सम्मान में उठ कर खड़े हो गये, और उन्हें प्रणाम किया। उसके बाद अर्ध्य, पाद्य तथा माला आदि से सूर्य के समान प्रकाशमान श्री शुकदेव जी की पूजा की और बैठने के लिये उच्चासन प्रदान किया। उनके बैठने के बाद अन्य ऋषि भी अपने अपने आसन पर बैठ गये। सभी के आसन ग्रहण करने के पश्चात् राजा परीक्षित ने मधुर वाणी में कहा - "हे ब्रह्मरूप योगेश्वर! हे महाभाग! भगवान नारायण के सम्मुख आने से जिस प्रकार दैत्य भाग जाते हैं उसी प्रकार आपके पधारने से महान पाप भी अविलंब भाग खड़े होते हैं। आप जैसे योगेश्वर के दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है पर आपने स्वयं मेरी मृत्यु के समय पधार कर मुझ पापी को दर्शन देकर मुझे मेरे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दिया है। आप योगियों के भी गुरु हैं, आपने परम सिद्धि प्राप्त की है। अतः कृपा करके यह बताइये कि मरणासन्न प्राणी के लिये क्या कर्तव्य है ? शुकदेव जी ने उन्हें श्रीमद्भागवत कथा सुना कर उनके मन में उठ रहे सभी प्रश्नों का समाधान किया। शुकदेवजी के सानिध्य से परिक्षित को भगवद् प्राप्ति हुई।
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