खून से खून
खून को प्यारा लगता है खून ।
हर रिष्ता बखूबी निभाता है खून ।।
मां बेटे का नाता है खून से ।
दादी पोता का रिष्ता है खून से ।।
सोलह संस्कार दिये जाते हें खून में ।
षादी से रिषता बनता है खून में ।।
रिष्तों को प्रेम से रंगती है कूंची ।
ऋषियों ने वर्ण व्यवस्था बनाई सोच थी ऊँची ।।
कलियुग का फेर है ।
रिष्ते हो रहे ढेर हैं ।।
जमीन ने भाई को भाई से मरवाया ।
जोरू ने पति से पत्नि का सिर कटवाया ।।
धन की खातिर दादी का पोते ने किया कत्ल ।
प्रेम की खातिर औलाद ने मां-बाप की धड़ से उतार दी षक्ल ।।
ईष्क की खातिर पत्नि ने पति का घर छोड़ा ।
औलाद को समझा बाधक, उसका गर्दन मरोड़ा ।।
मन पर सवार जब होता है इष्क का घोड़ा ।
वह पल होता है क्षण भंगुर, प्रेमरस उसमें थोड़ा ।।
बुढापा होता है बहुत कष्टकारी ।
औलाद को बुजुर्ग लगता है भारी ।।
इन्सान सोचता है बेटा अन्त समय में मेरी सेवा करेगा ।
जब जनक जर से होते हैं लाचार बेटा सोचता बूढा कब मरेगा।।
एक कुंआ कई तालाबों को भर देता है।
प्यासा कुंआ तालाबों को देख आह भर लेता है।।
यदि इन्सान समझे तो झगड़े की जड़ हैं तीन ।
तीनों के नाम हैं जर, जोरू और जमीन ।।
मोह माया में इन्सान है बे बस।
इसलिये खून में सूख गया है रस।।
खून में वो श्रद्धा और विष्वास कहाँ।
इस कारण मानव तड़प रहा यहाँ ।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें